गीता, अनुवाद और टिप्पणी १५-अध्याय । ८०३ न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नांतो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सापेरूटमूलमसंगशस्त्रेण रढेन छित्त्वा ॥३॥ ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । तमेव चाधं पुरुष प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिःप्रसृता पुराणी ॥ ४॥ फा, इन दो लोगों में मेल कर दिया है। गोश-प्राति के लिये त्रिगुणात्मक और उपमूल पृश के इस फैलाप से मुक्त हो जाना चाहिये । परन्तु यह धून इतना बदा कि इसके भोर छोर का पता ही नहीं चलता । अतएव अय यतलाते हैं कि इस सपार पृच का नाश करके, इसके मूल में वर्तमान अमृत-तत्व को पह- बनने का कौन सा मार्ग--]] (२) परन्तु इस लोक में (पाकि ऊपर वर्णन किया है) वैसा उसका स्वरूप उपलब्ध नहीं होता; मगवा सन्त, मादि और प्राधारस्थान भी नहीं मिलता। अत्यन्त गहरी जड़ीपाने इस सचाप (वन) को अनासक्ति रुप सुड़ तलवार से काट फर,()फिर उस स्थान को हूँह निकालना चाहिये कि जहाँ जाने से फिर लौटना मही पढ़ता और यह मान करना चाहिये कि (सृष्टि-क्रम की या) "पुरातनं प्रवृत्ति जिससे उत्पा दुई, उसी पर पुरुष की प्रोर में जाता हूँ।" [गीतारहस्य के इस प्रकरण में विवेचन किया है कि सृष्टि का फैजाव ही माम-रूपात्मक कर्म है और यह कर्म सनादि । थासा-युधि छोड़ देने से सफा नाय हो जाता है, और किसी भी उपाय से इसका क्षय नहीं होता क्योंकि यह स्व तः सनादि और अन्यय है (देखो २२५-२८)। तीसरे सोक के " उसका स्वरूप या मादि-अन्त नहीं मिलता" इन शब्दों से यही सिद्धान्त प्यक किया गया कि कर्म अगादि है और आगे चल कर इस फर्मवृक्ष का क्षय करने के लिये एक अनासक्ति ही को साधन यतलाया है। ऐसे ही उपासना करते समय जो भावना मन में रहती है, उसी के अनुसार भागे फल मिलता है (गी. ८.६)। अतएव चीये श्लोक में स्पट कर दिया है कि वृक्ष छेदन की यह क्रिया झोते समय मन में कौन सी भावना रहनी चाहिये । शाकरभाष्य में "तमेव चायं पुरुष प्रपये " पाठ है, इसमें वर्तमानकान प्रथम पुरुप के एकवचन का 'प्रपो' क्रियापद है जिससे यह अर्थ करना पड़ता है और इसमें इति' सरीसे किसी न किसी पद का अध्याहार भी करना पड़ता है । इस कठिनाई फो टालने के लिये रामानुजभाज्य में लिखित " तमेव चायं. पुरुष प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः " पाठान्तर को स्वीकार कर जें तो ऐसा अर्थ किया जा सकेगा कि "जहाँ जाने पर फिर पीछे नहीं लौटना पड़ता, उस स्थान को खोजना चाहिये, (और) जिससे सब सृष्टि की उत्पत्ति हुई है उसी में मिज्ञ जाना चाहिये । किन्तु 'प्रपद्' धातु है नित्य आत्मनेपदी, इससे उसका विध्यर्धक अन्य पुरुष का रूप प्रपोत ' हो नहीं सकता। 'प्रपयेत् ' परस्मैपद का रूप है और पद
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