गोता, अनुवाद और टिप्पणी-१५ अध्याय । शाश्वतत्यं च धर्मस्य सुखस्यैकांतिकस्य च ॥२७॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतामु उपानपत्सु माविद्यायो योगशाग्ने श्रीकृष्णार्जुन- संवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ।। १४ ।। [इस श्लोक का भावार्थ यह है कि सांगयों के द्वैत को छोड़ देने पर सर्वत्र एक ही परमेश्वर रह जाता है, इस कारगा उसी की भक्ति से निगुणातीत अवस्था भी प्राप्त होती है। भार, एक ही ईश्वर मान लेने से साधनों के सम्बन्ध में गीता }का कोई भी पाना नहीं है (देखो १३. २४ और २५) गीता में भक्ति- मार्ग को सुलभ मराएप सप लोगों के लिये ग्रालय कहा लही पर यह कहीं भी नहीं कहा कि न्याय मार्ग त्याज्य है।गीता में केवल भक्ति, केवल ज्ञान प्रयया फेवा चोग ही प्रतिपाय है- मत मिा भिन्न सम्प्रदायों के अभि- मानियों ने पीछे से गीता पर लाद दिये हैं। गीता का सच्चा प्रतिपाय विषय तो निराला दी । मार्ग कोई भी शो; गीता में मुख्य प्रश्न यही है कि परमेश्वर का ज्ञान हो जाने पर संसार के कर्म लोकसंग्रहार्य किये जा पा छोड़ दिये जायें; और हसका साफ-साफ उत्तर पहले ही दिया जा नुहा है कि वर्मयोग श्रेष्ठ है।] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहै हुए उपनिषद् में, महाविद्यान्त- गत योग-अयान फर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, गुगा- प्रय विभाग गोग नामक पौदाची प्रध्यार-समाप्त हुआ। . - पंद्रहवाँ अध्याय । [माल के विचार के सिलसिले में, तेरहमें अध्याय में उसी क्षेत्र क्षेत्र- विचार के साश सांस्यों के प्रकृति-पुरुप का विवेक बतलाया। चौदहवें अध्याय में यह कहा है कि प्रकृति के तीन गुणों से मनुष्य-मनुष्य में स्वभाव-भेद कैसे उत्पन्न होता है और उससे साविक मादि गति भेद क्योंकर होते हैं। फिर यह विवेचन किया है कि निगुणातीत अवस्था अथवा अध्यात्म-सृष्टि से नाली स्थिति किसे कहते है और वह कैले प्राप्त की जाती है । यह सब निरूपण सांख्यों की परिभाषा में है प्रपश्य, परन्तु लाज्यों के द्वैत को स्वीकार न करते हुए, जिस एक ही परमधर की विभूति प्रकृति और पुरुष दोनों हैं, उस परमेश्वर का ज्ञान-विज्ञान-हाट से निरूपण किया गया है। परमेश्वर के स्वरूप के इस वर्णन के अतिरिक्त भाठ अध्याय में प्रधियज्ञ, अध्यात्म और अधिदैवत आदि भेद दिखलाया जा चुका है। और, यह पहले ही कह शाये है कि लय स्थानों में एक ही परमात्मा व्याप्त है, एवं क्षेत्र में पेषज्ञ भी वही है। अब इस अध्याय में पहले यह बतलाते हैं कि परमेश्वर की ही रची हुई सृष्टि के विस्तार का, अथवा परमेश्वर के नाम रूपात्मक विस्तार का ही कभी
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