पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८३५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। सत्त्वात्संजायते सानं रजसो लोभ एव च। प्रमादमोही तमसो भवतोऽशानमेव च ॥ १७ ॥ ऊर्व गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा! जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८ ॥ HS नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ॥ १९ ॥ गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । परन्तु राजस कर्म का फल दुःख, और तामस कर्म का फल प्रज्ञान होता है । (16) सत्व से ज्ञान, और रजोगुण से केवल लोन उत्पन्न होता है। तमोगुण से न केवल प्रमाद और मोह ही उपजता है, प्रत्युत प्रज्ञान की भी उत्पत्ति होती है। (१८) साविक पुरुष ऊपर के, अर्थात् स्वर्ग आदि, लोकों को जाते हैं । राजस मध्यम लोक में अर्थात् मनुष्यलोक में रहते हैं और कनिष्ठगुण वृत्ति के तामस अधोगति पाते हैं। [सांख्यकारिका में भी यह वर्णन है कि धार्मिक और पुण्यकर्म-कर्ता होने के कारण सत्वस्थ मनुष्य स्वर्ग पाता है और अधर्माचरण करके तामस पुरुष अधोगति पाता है (सां. का. १४)। इसी प्रकार यह ८ वा श्लोकं अनुगीता के त्रिगुण-वर्णन में भी ज्यों का त्यों आया है (देखो ममा. अश्वे. ३६.१०; और मनु. १२.४०)। सात्विक कर्मों से स्वर्ग की प्राति हो भले जावे, पर स्वर्गसुख है तो अनित्य ही; इस कारण परम पुरुषार्थ की सिद्धि इससे नहीं होती है। सांख्यों का सिद्धान्त है कि इस परम पुरुषार्थ या मोक्ष की प्राप्ति के लिये उत्तम सात्विक स्थिति तो रहे हो, इसके सिवा यह ज्ञान होना भी भावश्यक है कि प्रकृति अलग है और मैं (पुरुष) जुदा हूँ। सांख्य इसी को त्रिगुणातीत-अवस्था कहते है। यद्यपि यह स्थिति सत्व, रज और तम तीनों गुणों से भी परे की है तो भी यह सात्विक अवस्था की ही पराकाष्ठा है। इस कारण इसका समावेश सामा- न्यतः सात्त्विक वर्ग में ही किया जाता है, इसके लिये एक नया चौथा वर्ग बनाने की आवश्यकता नहीं है (देखो गीतार. पृ. १६७-६८) ।परन्तु गीता को यह प्रकृति-पुरुषवाला सांख्यों का द्वैत मान्य नहीं है इसलिये सांख्यों के ठक सिद्धान्त का गीता में इस प्रकार रूपान्तर हो जाता है, कि प्रकृति और पुरुष से परे जो एक आत्मस्वरूपी परमेश्वर या परब्रह्म है, उस निर्गुण ब्रह्म को जो पिहचान लेता है उसे त्रिगुणातीत कहना चाहिये । यही अर्थ अगले श्लोकों में वर्णित है-] () द्रष्टा अर्थात् उदासीनता से देखनेवाला पुरुष, जव जान लेता है कि (प्रकृति के गुणों के अतिरिक दूसरा कोई कर्ता नहीं है, और जब (तीनों) गुणों से परे (तत्व को) पहचान जाता है तब वह मेरे स्वरूप में मिल जाता है।