पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८३४

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. गीता, अनुवाद और टिप्पणी -१४ अध्याय । IS रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजःसत्त्वं तमश्चैव तमः सत्वं रजस्तथा ॥ १०॥ सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते । शानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ ११ ॥ लोभः प्रवृत्तिरारंभः कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्ध भरतर्षभ ॥ १२॥ अप्रकाशोऽप्रवृत्तिच प्रमादो मोह पन च । तमस्येतानि जायन्ते विवृद्ध कुरुनन्दन ॥ १३ ॥ IS सदा सत्त्वे प्रवृद्ध तु प्रलयं याति देहभृत् । तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥ रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु आयते । तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥१५॥ कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्विकं निर्मलं फलम् । रजसस्तु फलं दुःखमशानं तमसः फलम् ॥ १६ ॥ सस्व का जोड़ा रज ई (मभा. अश्व. ३६ ); और कहा है कि इनके अन्योन्य अर्थात् पारस्परिक साश्रय से अथवा झगड़े से सृष्टि के सय पदार्थ बनते हैं देखो सां. का.१२ और गीतार. पृ. १५७ और १५८ । अब पहले इसी तत्व को यतला कर फिर सारिवक, राजस और तामस स्वभाव के नजण बतलाते हैं-] (१०)रज और तम को दया कर सम्म (अधिक) होता है (तब उसे सात्विक कहना चाहिये); एवं इसी प्रकार सत्व और तम को दया कर रज, तथा सश्य और रज को हटा कर तम (अधिक हुश्रा करता है) । (११) जय इस देह के सब द्वारों में (इन्द्रियों में) प्रकाश अर्थात् निर्मल ज्ञान उत्पन्न होता है, समझना चाहिये कि सत्वगुण बढ़ा हुआ है । (१२) हे भरतश्रेष्ट ! रजोगुण बढ़ने से लोम, कर्म की भोर प्रवृत्ति और उसका आरम्भ, अतृमि एवं इच्छा उत्पन्न होती है । (१३) और हे कुरु- नन्दन ! तमोगुण की घृत्ति होने पर अंधेरा, कुछ भी न करने की इच्छा,प्रमाद अर्थाव कर्तव्य की विस्मृति और मोह भी उत्पन्न होता है। 1 [यह बतजा दिया कि मनुष्य की जीवितावस्था में त्रिगुणों के कारण उसके स्वभाव में कौन कौन से फर्क पड़ते हैं। अब बतलाते हैं कि इन तीन प्रकार के मनुष्यों को कौन सी गति मिलती है- (१४) सत्वगुणा के उत्कर्ष काल में यदि प्राणी मर जावे तो उत्तम तत्व जानने वालों के, अर्थात् देवता श्रादि के, निर्मल (स्वर्ग प्रभृति) लोक उसको प्राप्त होते हैं। (१५) रजोगुण की प्रबलता में मरे तो जो कर्मों में प्रासक्त हों, उनमें (जनों में) जन्म लेता है और तमोगुण में मरे तो (पशु-पक्षी आदि) मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है । () कहा है कि, पुण्य कर्म का फल निर्मल और सात्विक होता है 8