गीता, मनुवाद और टिप्पणी- १४ अध्याय । ७६३ चतुर्दशोऽध्यायः। श्रीभगवानुवाच । परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे पर सिद्धिमितो गताः ॥१॥ इदं शानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः। सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलय नव्यथन्ति च ॥२॥ Is ममयोनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम् । चौदहवाँ अध्याय । [तेरहवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विचार एक बार वेदान्त की दृष्टि से और दूसरी बार सांख्य की दृष्टि से बतलाया है; एवं उसी में प्रतिपादन किया है कि सब कर्तृत्व प्रकृति का ही है, पुरुष अर्थात् क्षेत्रज्ञ उदासीन रहता है । परन्तु इस बात का विवेचन अब तक नहीं हुआ कि प्रकृति का यह कर्तृत्व क्योंकर चला करता है। मतएव इस अध्याय में बतलाते हैं कि एक ही प्रकृति से विविध सृष्टि, विशेषतः सजीव सृष्टि, कैसे उत्पन्न होती है । केवल मानवी सृष्टि का ही विचार करें तो यह विषय क्षेत्र सम्बन्धी अर्थात शरीर का होता है, और उसका समावेश क्षेत्र- नेत्रज्ञ-विचार में हो सकता है । परन्तु जप स्थावर सृष्टि भी त्रिगुणात्मक प्रकृति का हो फैलाव है, तंब प्रकृति के गुण-भेद का यह विवेचन क्षर-अक्षर विचार का भी भाग हो सकता है। अतएव इस संकुचित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार ' नाम को छोड़ कर सातवें अध्याय में जिस ज्ञान-विज्ञान के बतलाने का आरम्भ किया था, उसी को स्पष्ट रीति से फिर भी बतलाने का आरम्भ भगवान् ने इस अध्याय में किया है। सांख्यशास्त्र की दृष्टि से इस विषय का विस्तृत निरूपण गीतारहस्य के आठवें प्रक- रण में किया गया है। त्रिगुण के विस्तार का यह वर्णन अनुगीता और मनुस्मृति के वारहवें अध्याय में भी है। श्रीभगवान् ने कहा-(1) और फिर सब ज्ञानों से उत्तम ज्ञान बतलाता हूँ, कि जिसको जान कर सब मुनि लोग इस लोक से परम सिद्धि पा गये हैं। (२) इस ज्ञान का प्राश्रय करके मुझसे एकरूपता पाये हुए लोग, सृष्टि के उत्पत्तिकाल में भी नहीं जन्मते और प्रलयकाल में भी व्यथा नहीं पाते (अर्थात् जन्ममरण से एकदम छुटकारा पा जाते हैं। [यह हुई प्रस्तावना । अब पहले बतलाते हैं कि प्रकृति मेरा ही स्वरूप है, फिर सांख्यों के द्वैत को अलग कर, वेदान्तशास्त्र के अनुकूल यह निरूपण करते हैं, कि प्रकृति के सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से सृष्टि के नाना प्रकार के व्यक पदार्थ किस प्रकार निर्मित होते हैं-] (३) हे भारत ! महद्ब्रह्म अर्थात प्रकृति मेरी ही योनि है, मैं उसमें गर्भ गी.र.१०. i
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