७६२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्न प्रकाशयति भारत ॥ ३३॥ क्षेत्रक्षेत्रक्षयोरेवमंतरं भानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिपातु ब्रह्मविद्यार्या चोगशाने श्रीकृष्णार्जुन- संवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥ सर्वत्र रहने पर भी मारमा को (किसी का भी) लेप नहीं लगता । (२३) हे मारत ! जैसे एक सूर्य सारे नगद को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्रह सब क्षेत्र को अथांद शरीर को प्रकाशित करता है। (३२) इस प्रकार ज्ञान-चन्तु से अयान ज्ञानरूप नेत्र से नेत्र और क्षेत्र के भेद को, एवं सब भूतों की (मूल) प्रकृति के मौन को, जो जानते हैं वे परब्रह्म को पाते हैं। i [यह पूरे प्रकरण का उपसंहार है। भूतप्रकृतिमोच' शब्द का मर्य हिमने सांत्यशास्त्र के सिद्धान्तानुसार किया है। सांस्यों का सिद्धान्त है कि मोद का मिलना या न मिलना आत्मा की अवस्थाएँ नहीं है, क्योंकि वह तो सदैव भिकर्ता और अलङ्ग है: पास्नु प्रकृति के गुणों के सङ्ग से वह अपने में कर्तृत्व का आरोर क्रिया करता है, इसलिये जब उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तंत्र इसके साथ लगी हुई प्रकृति हट जाती है, अर्थात् उसी का मोच हो जाता है और इसके पश्चात् टसमा पुरुष के आगे नाचना बन्द हो जाता है। अतएव सांख्य मत-बाले प्रतिपादन किया करते हैं कि तात्विक दृष्टि से बन्ध और मोन- दोनों अवस्याएँ प्रकृति की ही है (देखो सांत्यज्ञारिका ६२ और गीतारहस्य पृ. ६४-६५) हमें जान पड़ता है कि सांख्य के ऊपर लिखे हुए सिद्धान्त के अनुसार ही इस लोक में प्रकृति का मोन' ये शन्द आये है। परन्तु कुछ लोग इन शब्दों का यह अर्थ भी लगाते हैं कि भूतम्यः प्रकृतश्च मोकः" 1-पञ्चमहाभूत चार प्रकृति से अर्थात् मायात्मक कर्मों से आत्मा का मोह होता है। यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विवेक ज्ञान-चन्नु से विदित होनेवाला है (गी. १३.३४); नवें अध्याय की राजविद्या प्रसन्न अर्थात् चर्मचन्नु से ज्ञात होनेवाली है (गी. ११.२); और विश्वल्प-दर्शन परम भगवद्भक ो भी केवल दिव्य-चन्नु से ही होनेवाला है (गी. 11.)। नर्वे, ग्यारहवें और तेरहवें अध्याय के ज्ञान-विज्ञान निरूपण का टक मंद ध्यान देने योग्य है।] इस प्रकार श्रीनगवान् के गाये हुए अर्याद कई हुए उपनिषद् में ब्रह्मविद्या- न्तर्गत योग-अर्यात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृमा और मर्जुन के संवाद में प्रकृति पुरुष-विवेक अर्थात् वेत्र-क्षेत्रज्ञ-विमा योग नामक तेरहवां अध्याय मनाइ हुमा।
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