४८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । हम अकर्म या धर्म-अधर्म के विपत्र में सब संदेहों का यदि निर्णय करने लगे तो दूसरा महानारत ही लिखना पड़ेगा । उन्क विवचन से पाठकों के व्यान में यह श्रात आजायगी, कि गीता के प्रारंभ में, क्षात्रधर्म और बंधुप्रेम के बीच झगड़ा उत्पन्न हो जाने से, अर्जुन पर कठिनाई आई वह कुछ लोग-विलना नहीं है। इस संसार में ऐसी कठिनाइयाँ कायंचतानों और बड़े भादमियों पर घनेक यार आया ही करती हैं और, जब पेली कठिनाइयाँ आती हैं तत्र, कमी अहिंसा और आत्मरक्षा के बीच, कमी सत्य और सर्वभूतहित में, कभी शरीररक्षा और कार्ति में और कनी निव भिन्न नातों से उपस्थित होनवाले फतव्यों में, मगढ़ा होने लगता है, शास्त्रोत सामान्य तया लवमान्य नीति-नियमों से काम नहीं चलता और उनके लिये अनेक अपवाद उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे विकट समय पर साधारण मनुष्यों से लेकर बड़े बड़े पंडितों को मी, यह जानने की स्वाभाविक इन्दा होती है कि कार्य-असावं की व्यवस्था-अयाद कन्य-अकतन्य धर्म का निर्णय करने के लिये कोई चिरस्थायी नियम अथवा युक्ति या नहींयह यात सच है किशानों में, दुर्मिन जैसे संकट के समय आपद्धन' कह कर कुछ सुविधाएँ दी गई हैं। उदाहरणार्थ, स्मृतिकारों ने कहा है कि यदि आपत्काल ने ब्राह्मण किसी का भी भ्रन ग्रहण कर ले तो वह दोपी नहीं होता और उपस्तिवामायण के इसी तरह वर्ताव करने की कया मी, चांदोग्योपनिषद् (याज्ञ.३.४५; द्रां.३.१०) में है। परन्तु इसमें और रक्त कठिनाइयों ने बहुत भेद है। दुर्मिज्ञ जैसे आपकात में, शानधर्म और भूख, प्यास आदि इन्द्रियवृत्रियों के बीच में ही नगढ़ा हुया करता है। उस समय हमको इन्द्रियाँ एक और खींचा बरती हैं और शान्नधर्म दूसरी और खींचा करता है। परन्तु जिन कठिनाइयों का वर्णन पर दिया गया है उनमें से यहुती ऐसी है कि उस समय इन्द्रिय-वृत्तियों का चौर शास्त्र का धनी विरोध नहीं होता, किन्तु ऐसे दो घी में परस्परविरोध उत्पन्न हो जाता है जिन्हें शाग्नों ही ने विहित कहा है। और, फिर, उस समय मुक्त विचार करना पड़ता है कि किस बात का स्वीकार किया नावे । यद्यपि कोई मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार, इनमें से कुछ बातों का निर्णय, प्राचीन सत्पुरुषों के ऐसे ही समय पर किये हुए वाव से, कर सकता है। त्यापि ऐसे अनेक नौके हैं कि जब बड़े बड़े बुद्धिमानों का भी मन घर में पड़ जाता है । कारण यह है कि जितना जितना अधिक विचार किया जाता है उतनी ही अधिक उपपत्रियाँ और तर्क उत्पन्न होते हैं और अंतिम निर्णय असमब सा हो जाता है । तब दचित निर्णय शेने नहीं पाता तब अधर्म या अपराध हो जाने की भी संभावना धोती है! इस दृष्टि से विचार करने पर मालूम होता है कि धर्म-अधर्म या मंत्रफल का विवेचन एक स्वतंत्र शास्त्र ही हैं जो न्याय तया व्याकरण से भी अधिक गहन है। प्राचीन संस्कृत ग्रंया में 'नीतिशास्त्र' शब्द का उपयोग प्रायः राजनीतिशास्त्र ही के विषय में छिया गया है और कर्तव्य-चकर्तव्य के विवेचन को 'धर्मशान' कहते हैं।
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