७१० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। $$ ध्याननात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्य सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥२४॥ अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते। तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्यु श्रुतिपरायणाः ॥ २५॥ 8 यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम् । क्षेत्रक्षेत्रासंयोगात्ताद्वद्धि भरतर्षभ ।। २६ ॥ समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । स्याज्य मानते हैं। किन्तु गीता ने ऐसा नहीं कियाः एक ही विषय, क्षेस-क्षेत्रज्ञ- विचार का एक वार वेदान्त की दृष्टि से, और दूसरी बार (वेदान्त के अद्वैत मत को विना छोड़े ही) सांख्य दृष्टि से, प्रतिपादन किया है। इससे गीताशास्त्र की समबुद्धि प्रगट हो जाती है। यह भी कह सकते हैं कि उपनिषदों के और गीता के विवेचन में यह एक महत्व का भेद है (देखो गी. र. परिशिष्ट पृ. ५२५) । इससे प्रगट होता है कि यद्यपि सांख्यों का द्वैत-वाद गीता को मान्य नहीं है, तथापि उनके प्रतिपादन में जो कुछ युक्तिसङ्गत जान पड़ता है वह गीता को अमान्य नहीं है। दूसरे ही श्लोक में कह दिया है कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही परमेश्वर का ज्ञान है। अव प्रसङ्ग के अनुसार संक्षेप से पिण्ड का ज्ञान और देह के परमेश्वर का ज्ञिान सम्पादन कर मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग बतलाते हैं- (२४) कुछ लोग स्वयं अपने आप में ही ध्यान से आत्मा को देखते हैं। कोई सांख्ययोग से देखते हैं और कोई कर्मयोग से । (२५) परन्तु इस प्रकार जिन्हें (अपने आप ही) ज्ञान नहीं होता, वे दूसरों से सुन कर (श्रद्धा से परमेश्वर का) भजन करते हैं। सुनी हुई वात को प्रमाण मान कर वर्तनेवाले ये पुरुष भी मृत्यु को पार कर जाते हैं। 1 [इन दो श्लोकों में पातञ्जलयोग के अनुसार ध्यान, सांख्यमार्ग के अनुसार ज्ञानोत्तर कर्मसंन्यास, कर्मयोग-मार्ग के अनुसार निष्काम बुद्धि से परमेश्वरार्पण पूर्वक कर्म करना, और ज्ञान न हो तो भी श्रद्धा से बालों के वचनों पर विश्वास रख कर परमेश्वर की भक्ति करना (गी. ४.३६),ये आत्मज्ञान के भिवं मिल मार्ग बतलाये गये हैं। कोई किसी भी मार्ग से जावे, अंत में उसे भगवान् का ज्ञान हो कर मोक्ष मिल ही जाता है । तथापि पहले जो यह सिद्धान्त किया गया है, कि लोकसंग्रह की दृष्टि से कर्मयोग श्रेष्ठ है, वह इससे खण्डित नहीं होता । इस प्रकार साधन बतला कर सामान्य रीति से समन विषय का अगले श्लोक में उपसंहार किया है और उसमें भी वेदान्त से कापिल सांख्य का मेल मिला दिया है। (२६) हे भरतश्रेष्ठ ! स्मरण रख कि स्थावर या जङ्गम किसी भी वस्तु का 'निर्माण क्षेत्र और क्षेत्र के संयोग से होता है। (२७) सब भूतों में एक ला रहने
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