गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । 8 शेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वाऽमृतमश्नुते। अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ १२ ॥ सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १३ ॥ सद्रियगुणाभासं सर्वेद्रियविवर्जितम् । असतं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्त च ॥ १४ ॥ बहिरंतश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चांतिके च तत् ॥ १५ ॥ अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । भूतमर्तृ च यज्ज्ञेयं प्रसिष्णु प्रभाविष्णु च ॥ १६ ॥ ज्योतिपामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । शानं शेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्टितम् ॥ १७॥ श्रीरामदास स्वामी के चरित्र से यह यात प्रगट होती है कि शहर में रहने की लालसा न रहने पर भी जगत् के व्यवहार केवल कर्तव्य समझ कर कैसे किये जा सकते हैं (देखो दासबोध ११. ६. २६ और १६.६.११)। यह ज्ञान का लक्षण हुमा, अय ज्ञेय का स्वरूप बतलाते हैं- (१२) (भव तुझे) वह यतलाता हूँ (वि) जिसे जान लेने से अमृत प्रयांत मोज मिलता है। (वह) अनादि (सत्र से) परेका ब्रह्म है। न उसे सव' कहते हैं और न 'असत् ही। (१३) उसके, सव और हाथ-पैर है सब मोर माँखें, सिर और मुँह है सब भोर कान हैं। और वही इस लोक में सवको म्याप रहा है। (१) (उसमें) सब इन्द्रियों के गुणों का आभास है, पर उसके कोई भी इन्द्रिय नहीं है वह (सत्र ले) असक्त मर्याद अलग हो कर भी सब का पालन करता है और निर्गुण होने पर भी गुणों का उपभोग करता है। (१५) (वह) सब भूतों के भीतर और बाहर भी है। अचर है और चर भी है। सूदम होने के कारण वह अविज्ञेय है, और दूर होकर भी समीप है। (६) वह (तत्वतः) 'भविभक्त' अर्थात् यखंडित होकर भी, सप भूतों में मानो (नानात्व से) विभक हो रहा है और (सव) भूतों का पालन करनेवाला, ग्रसनेवाला एवं उत्पन्न करने थाला भी उसे ही समझना चाहिये । (१७) उसे ही तेज का भी तेज, और अन्धकार से परे का कहते हैं। ज्ञान, जो जानने योग्य है वह (ज्ञेय), और ज्ञानगम्य अर्थात् शान से (ही) विदित होनेवाला मी (वही) है, सब के हृदय में वही अधिष्ठित है। । [अचिन्त्य और अक्षर परब्रह्म-जिसे कि क्षेत्रज्ञ अथवा परमात्मा मी कहते हैं-(गी. १३. २२) का जो वर्णन ऊपर है, वह आठवें अध्यायवाले अक्षर ब्रह्म के वर्णन के समान (गी.८६-११) उपनिषदों के आधार पर किया गया है। पूरा तेरहवाँ श्लोक (वे. ३. १६) और अगले श्लोक का यह अद्धांश कि 1
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