गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१३ अध्याय । SS महाभूतान्यहंकारो वुद्धिरत्यक्तमेव च । इंद्रियाणि दशैकं च पञ्च चंद्रियगोचराः॥५॥ इच्छा देपः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सचिकारगुदाहतम् ॥ ६ ॥ विषय गाया गया है कि जिन्हें बहुत प्रकार से, विविध छन्दों में पृथक् पृथक् (भनेक) मापियों ने (कार्य-कारणरूप) देत दिखला कर पूर्ण निश्चित किया है। 1 [गीतारहस्य के परिशिष्ट प्रकरण (पृ. ५३२-५३६) में हमने विस्तारपूर्वक दिखलाया है कि, इस श्लोक में वापसून शब्द से वर्तमान चेदान्तसूत्र उद्दिष्ट हैं। उपनिषद् किसी एक ऋषि का कोई एक अन्य नहीं है । भनेक अपियों को भित मिरा काल या स्थान में जिन अध्यात्मविचारों का कुरा हो पाया, वे विचार बिना किसी पारस्परिक सम्बन्ध के भिन्न भिन्न उपनिषदों में वर्णित हैं। इसलिये उपनिषद् सद्धीर्ण हो गये हैं और कई स्थानों पर ये परस्पर विरुद्ध से जान पड़ते ६। अपर के श्लोक के पहले चरण में जो विविध पार पृथक् ' शब्द है ये उपनिपदों के इसी सहीण स्वरूप का बोध कराते हैं । इन उपनिपदों के सही और परस्सर-विरुद्ध होने के कारण प्राचार्य यादरायगय ने उनके सिद्धान्तों की एक- यापयता करने के लिये महसूत्रों या वेदान्तसूत्रों की स्वनाशी है। और, इन सूत्रों में उपनिषदों के सय विषयों को लेकर प्रमाण सहित, प्रांत कार्य-कारण आदि देत दिखला करके, पूर्ण रीति से सिद्ध किया है कि प्रत्येक विषय के सम्बन्ध में सय उपनिपदों से एक ही सिद्धान्त कैसे निकाला जाता है। अर्थात् उपनिषदों का रहस्य समझने के लिये वेदान्तसूत्रों की सदय जरूरत पड़ती है। अतः इस श्लोक में दोनों ही का उलेख किया गया है। पानसून के दूसरे अध्याय में, तीसरे पाद के पहले ६ सूत्रों में क्षेत्र का विचार और फिर उस पाद के अन्त तक क्षेत्र का विचार किया गया है ब्रह्मसूत्रों में यह विचार है, इसलिये उन्हें 'शारीरक सूत्र' भात शरीर या क्षेत्र का विचार करनेवाले सूत्र भी कहते हैं। यह पतला चुके कि क्षेत्र-क्षेत्र का विचार किसने कहा किया है। अब बतलाते हैं कि क्षेत्र क्या है- (५) (पृथिवी आदि पाँच स्यूल) महाभूत, अक्षार, बुद्धि (महार), अध्यक्त (प्रकृति), दश (सूक्ष्म ) इन्द्रियाँ और युवा (मग) तथा (पाँच) इन्द्रियों के पांच (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये सूक्ष्म) विषय, (६) इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना अर्थात् प्राण प्रादि का व्यक्त व्यापार, और पति यानी धैर्य, इस (३१ तावों के) समुदाय को सविकार क्षेत्र कहते हैं। [यह क्षेत्र और उसके विकारों का लक्षण है। पांचवें श्लोक में सांख्य मत- वालों के पच्चीस तस्वों में से, पुरुष को छोड़ शेष चौबीस तस्व आगये हैं। इन्हीं चौपीस तावों में मन का समावेश होने के कारण इच्छा, द्वेप आदि मनोधी
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