गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ये तु धामृतमिदं यथोक्त पर्युपासते। श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥२०॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यार्या योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ मन की इसी वैराग्य स्थिति को प्रगट करने के लिये गीता में 'अनिकेत' और सिरिंभपरित्यागी आदि शब्दं स्थितप्रज्ञ के वर्णन में भाया करते हैं। येहीशन यतियों के अर्थात् कर्म त्यागनेवाले संन्यासियों के वर्णनों में भी स्मृतिप्रग्या में माये हैं। पर सिर्फ इसी बुनियाद पर यह नहीं कहा जा सकता, कि कर्मत्याग- रूप संन्यास ही गीता में प्रतिपाद्य है। क्योंकि इसके साथ ही गीता का यह दूसरा निश्चित सिद्धान्त है कि जिसकी बुद्धि में पूर्ण वैराग्य मिद गया हो, इस ज्ञानी पुरुष को भी इसी विरक बुद्धि से फलाशा छोड़ कर शास्त्रतःपात होनेवाले सब कर्म करते ही रहना चाहिये । इस समूचे पूर्वापर सम्बन्ध को विना समझे, गीता में जहाँ कहीं "अनिकेत की जोड़ के वैराग्य-बोधक शब्द मिल जावें उन्हीं पर सारा दारमदार रख कर यह कह देना ठीक नहीं है कि गीता में कर्म-संन्यास- प्रधान मार्ग ही प्रतिपाध है। (२०)ऊपर बतलाये हुए इस अमृततुल्य धर्म का जो मत्परायण होते हुए श्रद्धा से आचरण करते हैं, वे भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। । [यह वर्णन हो चुका है (गी. ६.४७, ७. १८) कि भक्तिमान् ज्ञानी पुरुष सब में श्रेष्ठ है। उसी वर्णन के अनुसार भगवान् ने इस श्लोक में बतलाया है कि हमें अत्यन्त प्रिय कौन है अर्थात यहाँ परम भगवद्भक्त कर्मयोगी का वर्णन किया है। पर भगवान् ही गी. ६.२६ वें श्लोक में कहते हैं कि “ मुझे सब एक से है, कोई विशेष प्रिय अथवा द्वेष्य नहीं है। देखने में यह विरोध प्रतीत होता है सही; पर यह जान लेने से कोई विरोध नहीं रह जाता कि एक वर्णन सगुण : उपासना का अथवा भक्तिमार्ग का है और दूसरा अध्यात्म-दृष्टि अथवा कर्मवि- पाक-दृष्टि से किया गया है। गीतारहस्य के तैरहवें प्रकरण के अन्त (पृ. ४२९ -४३०) में इस विषय का विवेचन है। इस प्रकार श्रीभगवान के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद् में, ब्रह्मविद्या न्तर्गत योग-अर्थात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, भक्तियोग नामक बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।
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