गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १३॥ संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मव्यर्पितमनोबुद्धिर्श मे भक्तः स मे प्रियः ॥ १४ ॥ यस्मामोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः। होमर्पभयाद्वेगमुक्तो यः स च मे प्रियः॥ १५ ॥ अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। सारंसपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥ यो न हृप्यति न टेष्टि न शोचति न कांक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥ १७ ॥ समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेयु समः संगविवर्जितः ॥ १८ ॥ "जो इस चेदान्ततत्व को जानता है कि, ज्ञान की अपेक्षाउपासना अर्थात् ध्यान या मक्ति सस्कृष्ट है एवं उपासना की थपंता कर्म अर्थात् निपज्ञाम का श्रेष्ठ है, वही पुरुषोत्तम है " (सूर्यगी. ४.७७) । सारांश, भगवद्गीता का निश्चित मत यह है कि कर्मफल-त्यागरूपी योग अर्थात् ज्ञान-भक्ति-युक्त निष्काम कर्मयोग हसर मागों में श्रेष्ठ है और इसके अनुकूल ही नहीं प्रत्युत पोप युक्तिवाद १२वे श्लोक में है। यदि किसी दूसरे सम्प्रदाय छो वह न त्चे तो, वह उसे छोड़ दे; परन्तु अर्थ की व्यर्थ खींचातानी न करे । इस प्रकार कर्मफल-त्याग को श्रेष्ठ सिव करके स मार्ग से जानेवाले को (स्वरूपतः कर्म छोड़नेवाले को नहीं) जोसम और शान्त स्थिति अन्त में प्राप्त होती है उसी का वर्णन करके अब मगंवान् बतलाते हैं कि ऐसाभक्त ही मुझे अत्यन्त प्रिय है-] (१३) जो किसी से द्वेप नहीं करता, जो सब भूतों के साथ मित्रता से वर्तता है, जो कृपालु है, जो ममत्वनुदि और अहंकार से रहित है, जो दुःख और सुख में समान एवं क्षमाशील है, (४) जो सदा सन्तुष्ट, संयमी तथा दृद्ध- निश्चयो है, जिसने अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण कर दिया है, यह मेरा (कर्म)योगी भक्क मुझको प्यारा है । (१५) जिससे न तो लोगों को कैश होता है और न तो लोगों से केश पाता है, ऐसे ही जो इप, क्रोध, भय और विषाद से प्रलिप्त है, वही मुझे प्रिय है। (१६) मेरा वही भक्त मुझे प्यारा है कि नो निर- पेक्ष, पवित्र और दक्ष है अर्थात् किसी भी काम को पालस्य छोड़ कर करता है, जो (फल के विषय में)ज्ज्ञासीन है, जिसे कोई भी विकार ढिगा नहीं सकता, धार जिसने (काम्यफल के) सब पारम्भ यानी यौन छोड़ दिये हैं। (१७) जो न आनन्द मानता है, न द्वेष करता है, जो न शोफ करता है और न इच्छा रखता है, जिसने ( कर्म के) शुभ और अशुभ (फल) छोड़ दिये हैं, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है। (1) जिसे शत्रु और मित्र, मान और अपमान, सर्दी और
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