गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥१०॥ अयैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ ११ ॥ श्रेयो हि शानमभ्यासालानाद्धयानं विशिष्यते । ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनंतरम् ॥ १२ ॥ प्राप्ति कर लेने की आशा रख । (१०)यदि अभ्यास करने में भी तु असमर्थ न हो तो मदर्थ अर्थात मेरी प्राप्ति के अर्थ (शास्त्रों में यतलाये हुए ज्ञान-ध्यान-भजन-पूजा- पाठ आदि) फर्म करता जा; मदर्थ (ये) कर्म करने से भी तू सिद्धि पावेगा (19) परन्तु यदि इसके करने में भी तू असमर्थ हो, तो उद्योग-मदर्पणपूर्वक योग यानी कर्मयोग का आश्रय करके यतात्मा होकर अर्थात् धीरे धीरे चित्त को रोकता हुआ, (अन्त में) सब कर्मों के फलों का त्याग करदे । (१२) क्योंकि अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान अधिक अच्छा है, ज्ञान की अपेक्षा ध्यान की योग्यता अधिक है, ध्यान की अपेक्षा कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है, और (इस कर्मफल के) त्याग से तुरंत ही शान्ति प्राप्त होती है। 1 [कर्मयोग की दृष्टि से ये श्लोक अत्यन्त महत्त्व के हैं। इन श्लोकों में भक्ति- युक्त कर्मयोग के सिद्ध होने के लिये अभ्यास, ज्ञान-मजन आदि साधन बतला कर, इसके और अन्य साधनों के तारतम्य का विचार करके अन्त में अर्थात १२वें श्लोक में, कर्मफल के त्याग की अर्थात् निष्काम कर्मयोग की श्रेष्ठता वर्णित है। निष्काम कर्मयोग की श्रेष्ठता का वर्णन कुछ यहीं नहीं है। किन्तु तीसरे (३. पाँचवे (५.२), और छठे (६.४६ ) अध्यायों में भी यही अर्थ स्पष्ट रीति से.पर्णित है और उसके अनुसार फल-त्यागरूप कर्मयोग का आचरण करने के लिये स्थान-स्थान पर अर्जुन को उपदेश भी किया है (देखो गीतार. पृ. ३०७ - ३०)। परन्तु गीताधर्म से जिनका सम्प्रदाय जुदा है. उनके लिये यह बात प्रतिकूल है। इसलिये उन्होंने ऊपर के श्लोकों का और विशेषतया १२ श्लोक के पदों का अर्थ बदलने का प्रयत्न किया है । निरे ज्ञानमार्गी अर्थात् सांख्य-टीका- कारों को यह पसन्द नहीं है कि ज्ञान की अपेक्षा कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ बतलाया जावे । इसलिये उन्होंने कहा है कि या तो ज्ञान शब्द से 'पुस्तकों का ज्ञान' लेना चाहिये, अथवा कर्मफल-त्याग की इस प्रशंसा को अर्थवादात्मक यानी कोरी प्रशंसा समझनी चाहिये । इसी प्रकार पातंजलयोग-मार्गवालों को अभ्यास की अपेक्षा कर्मफल-त्याग का बड़प्पन नहीं सुहाता और कोरे भक्तिमार्गवालों को- अर्याव जो कहते हैं कि भक्ति को छोड़, दूसरे कोई भी कर्म न करो उनको- ध्यान की अपेक्षा अर्थात् भक्ति की अपेक्षा कर्मफलत्याग की श्रेष्ठता मान्य नहीं हो वर्तमान समय में गीता का भक्तियुक्त कर्मयोग सम्प्रदाय लुस सा हो गया कि जो पातञ्जलयोग, ज्ञान और भक्ति इन तीनों सम्प्रदायों से भिन्न है,
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