७७४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । द्वादशोऽध्यायः अर्जुन उवाच । एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। ये चाप्यक्षरमन्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥१॥ श्रीभगवानुवाच । 5 भय्यावश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥२॥ ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिंत्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ ३॥ संनियम्यद्रियग्राम सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥४॥ क्लेशोऽधिकतरस्तेपामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अध्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥५॥ ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥६॥ तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । इस प्रम में व्यकोपासना का अर्थ भक्ति है । परन्तु यहाँ भक्ति से मिन्न मिन भनेक उपास्यों का अर्थ विवक्षित नहीं है। उपास्य अथवा प्रतीकं कोई भी हो, उसमें एक ही सर्वव्यापी परमेश्वर की भावना रख कर जो माल की जाती है वही सची व्यक-पा- सना है और इस अध्याय में वही उद्दिष्ट है।] अर्जुन ने कहा-(१) इस प्रकार सदा युक अर्थात् योगयुक्त हो कर जो भक तुम्हारी उपासना करते हैं, और जो अव्यक अक्षर अर्थात् ब्रह्म की उपासना करते हैं सनमें उत्तम (कर्म)योगवत्ता कौन हैं? श्रीभगवान ने कहा-(२) मुझमें मन लगा कर, सदा युक्तचित्त हो करके परम श्रद्धा से जो मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मन में सब से उत्तम युक्त अर्थात योगी है। (३-४) परन्तु जो अनिर्देश्यं अथात् प्रत्यक्ष न दिखलाये जानेवाले, अन्यक्त, सर्वव्यापी, अचिन्त्य और कूटस्थ अर्थात् सव के मूल में रहनेवाले, अचन, और नित्य अक्षर अर्थात् ब्रह्म की उपासना सव इन्द्रियों को रोक कर सर्वत्र समबुद्धि रखते हुए करते हैं, वे सब भूतों के हित में निम्न (लोग मी) मुझे ही पाते हैं. () (तयांपि) उनके चित्त अन्यक्क में आसक रहने के कारण केश अधिक होते हैं। क्योंकि (ध्यक्त देहधारी मनुष्यों को) अव्यक्त उपासना का मार्ग कष्ट से सिद्ध होता है । (६) परन्तु जो मुझमें सब कर्मों का संन्यात अर्थात् 'अर्पण करके
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