पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८११

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७७२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । अर्जुन उवाच। दृट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन । इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ ५१ ।। श्रीभगवानुवाच । HS सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ॥ देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकांक्षिणः ॥५२॥ नाहं वेदैन तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥ ५३ ॥ भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । क्षातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ ५४॥ 8 भत्कर्मकन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः सिद्धान्त और भी सुदृढ़ हो जाता है कि गीता बहुत प्राचीन होगी । देखो गीता- रहस्य परिशिष्ट प्रकरण पृ. ५१६ । अर्जुन ने कहा-(५१) हे जनार्दन ! तुम्हारे इस सौम्य और मनुष्य देहधारी रूप को देख कर अब मन ठिकाने आ गया और मैं पहले की भाँति सावधान हो गया हूँ। श्रीमगवान ने कहा-(५२) मेरे जिस रूप को तू ने देखा है, उसका दर्शन मिलना बहुत कठिन है। देवता भी इस रूप को देखने की सदैव इच्छा किये रहते है। (५३) जैसा तूने मुझे देखा है, वैसा मुझो वेदों से, तप से, दान से अथवा यज्ञ से भी (कोई ) देख नहीं सकता। (५४) हे अर्जुन ! केवल अनन्य भक्ति से ही इस प्रकार मेरा ज्ञान होना, मुझे देखना और है परन्तप! मुझमे तत्त्व से प्रवेश करना सम्भव है। [भक्ति करने से परमेश्वर का पहले ज्ञान होता है, और फिर अन्त में पर- मिश्वर के साथ उसका तादात्म्य हो जाता है। यही सिद्धान्त पहले ४. २९ में और भागे १८.५५में फिर आया है। इसका खुलासा हमने गीतारहस्य के तेरहवें प्रकरण (पृ. ४२६-४२८) में किया है। अब मर्जुन को पूरी गीता के अर्थ का सार बतलाते हैं-] (५५) हे पाण्डव ! जो इस बुद्धि से कर्म करता है कि सब कर्म मेरे भाव परमेश्वर के हैं, जो मत्परायण और सङ्गविरहित है, और जो सब, प्राणियों के विषय में निर है, वह मेरा भक मुझमें मिल जाता है। i [उक्त श्लोक का आशय यह है कि, जगत् के सब व्यवहार भगवद्भक को पर- मेश्वरार्पणबुद्धि से करना चाहिये (ऊपर ३३ वा श्लोक देखो), अर्थात् से सारे व्यवहार इस निरभिमान बुद्धि से करना चाहिये कि जगत् के सभी कर्म परमेश्वर