गीता, अनुवाद और टिप्पणी-११ अध्याय । ७७१ तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन साहनवाहो भव विश्वमूर्ते ॥ ४६॥ श्रीभगवानुवाच । $$ मया प्रसन्न तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् । तेजोमयं विश्वमनंतमाधं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥ ४७॥ नवेदयशाध्ययनै दानेन च क्रियाभिर्न तपोमिस्त्रैः। एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥ ४८ ।। मा ते व्यथा मा च विमूढभावो राष्ट्वा रूपं वोरमीममेदम् । व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव में रूपमिदं प्रपश्य ।। ४९ ॥ संजय उवाच । इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्या स्वकं रूपं दर्शयामालभूयः । आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा॥५०॥ देप! अपना यही पहले का स्वरूप दिखलाओ। (६) मैं पहले के समान ही किरीट और गदा धारण करनेवाले, हाय, में धक लिये हुए तुमको देखा चाहता (भतएप) हे सहरयाहु, विधमूर्ति ! उसी चतुर्भुज रूप से प्रगट हो जाओ! श्रीभगवान् ने कक्षा--(४७) हे अजुन ! (तुझ पर) प्रसन्न हो कर यह तेजो- मय, अनन्त, आय और परम विवरूप अपने योग-सामर्थ्य से मैंने तुझे दिखलाया इसे तेरे सिवा और किसी ने पहले नहीं देखा । (८) हे कुरुवीरश्रेष्ठ! मनुष्य- भोक में मेरे इस प्रकार का स्वरूप कोई भी वेद से, यज्ञों से, स्वाध्याय से, दान से, का से, मपया उग्र तप से नहीं देख सकता, कि जिसे तू ने देखा है। (2) मेरे, ऐसे घोर रूप को देख कर अपने चित्त में व्यथा न होने दे और मूह मत हो भार बोड़ कर सन्तुष्ट मन से मेरे उसी स्वरूप को, फिर देख ले । साय ने कहा-(५०) इस प्रकार भापण करके घासुदेव ने अर्जुन को फिर भपना (पहले का) स्वरूप दिखलाया और फिर सौम्य रूप धारण करके उस महात्मा ने डरे हुए अर्जुन को धीरज घंधाया। i [गीता के द्वितीय अध्याय के ५वें से ३, २०, २२, २४वें और ७०३ लोक, पाठवें अध्याय के ध्वं, १०३, ११वें और रसवें लोक, नवे अध्याय के २० और २१वें श्लोक, पन्द्रहवें अध्याय के रे से ५वें और १५वें श्लोक, का बन्द विश्वरूप-वर्णन के उस ३६ श्लोकों के छन्द के समान है अर्थात् इसके प्रत्येक चरण में ग्यारह मदर हैं। परन्तु इनमें गणों का कोई एक नियम नहीं है, इससे कालिदास प्रकृति के काव्यों के हन्द्रवजा, उपेन्द्रवन्ना, उपजाति, दोधक, शालिनी भादि छन्दों की चाल पर ये श्लोक नहीं कहे जा सकते । अर्थात् यह वृत्तरचना भाष यानी वेदसंहिता के निधुः धृत्त के नमूने पर की गई है इस कारण यह
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