पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८०९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहत्व अथवा कर्मयोगशास्त्र । पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायाहसि देव सोदुम् ४४ अष्टपूर्व हपितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे । तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगनिवास ॥४५॥ किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । हो जाओ। जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के अथवा सखा अपने सखा के अपराध चमा करता है, उसी प्रकार हे देव! प्रेमी (आप) को प्रिय के (अपने प्रेमपात्र के अर्थात् मेरे, सब) अपराध क्षमा करना चाहिये। । [कुब लोक “प्रियः प्रियायाईसि" इन शब्दों का " प्रिय पुरुष जिस प्रकार अपनी स्त्री के" ऐसा अर्थ करते हैं। परन्तु हमारे मत में यह ठीक नहीं है। क्योंकि व्याकरण की रीति से 'प्रियायाईसि' के प्रियायाः+महमि अथवा प्रियायै+मईसि ऐसे पद नहीं टूटते, और उपमा-धोतक 'इव' शब्द भी इस श्लोक में दो बार ही आया है। अतः प्रियः प्रियायाईसि' को तीसरी उपमान समझ कर उपमेय मानना ही अधिक प्रशस्त है। 'पुत्र के (पुत्रस्य), सखा के (सख्युः), इन दोनों उपमानात्मक पठयन्त शब्दों के समान यदि उपमेय में मी "प्रियस्य' (प्रिय के) यह पष्ठयन्त पद होता, तो बहुत अच्छा होता । परन्तु अव स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया ' इस न्याय के अनुसार यहाँ व्यवहार करना चाहिये । हमारी समझ में यह वात बिलकुल युक्तिसङ्गत नहीं देख पड़ती कि "प्रियस्य' इस पाठ्यन्त स्त्रीलिङ्ग पद के प्रभाव में, व्याकरण के विरुद्ध 'प्रियाया' यह पष्ठयन्त खीलिङ्ग का पद किया जावे; और जब वह पद अर्जुन के लिये लागू न हो सके तक, 'इव' शब्द को अध्याहार मान कर ' प्रियः प्रियाया- प्रेमी अपनी प्यारी स्त्री के-ऐसी तीसरी उपमा मानी जावे, और वह भी शृङ्गारिक अतएव अप्रासङ्गिक हो। इसके सिवा, एक और बात है कि पुत्रस्य, सख्युः, प्रियायाः, इन तीनों पदों के उपमान में चले जाने से उपमेय में पाठयन्त पद बिलकुल ही नहीं रह जाता, और 'मे अथवामम' पद का फिर भी मध्याहार करना पड़ता है एवं इतनी माथापच्ची करने पर उपमान और उपमेय में जैसे तैसे विभाति की समता हो गई, तो दोनों में लिङ्गकी विषमता का नया दोष बना ही रहता है। दूसरे पक्ष में भर्थात् प्रियाय+मईसि ऐसे व्याकरण की रीति से शुद्ध और सरल पद किये जाय तो उपमेय में जहाँ पछी होनी चाहिये, वहाँ 'प्रियाय' यह चतुर्थी आती है, यस इतना ही दोष रहता है और यह दोप कोई विशेष महत्व का नहीं है। क्योंकि पष्ठी का अर्थ यहाँ चतुर्थी का सा है और अन्यन्त्र भी कई बार ऐसा होता है । इस लोक का अर्थ परमार्थप्रपा टीका में वैसा ही है, जैसा कि हमने किया है। (४५) कभी न देखे हुए रूप को देख कर मुझे हर्ष हुआ है और भय से मेरा मन माकुन मी हो गया है। हे जगविवाल, देवाधिदेव ! प्रसन हो जामो! और