गीता, अनुवाद और टिप्पणी- ११ अध्याय । किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशि सर्वतो दीप्तिमंतम् । पश्यामि त्वां दुनिरीक्ष्यं समंताहीप्तानलार्कातिमप्रमेयम् ॥१७॥ त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमन्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥१८॥ अनादिमध्यांतमनंतवीर्यमनंतबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् । पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् १९ धावापृथिव्योरिदमंतरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः। दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुझं तवेदं लोकत्रयं प्रत्याथितं महात्मन् ॥ २०॥ अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्रांजलयो गृणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वांस्तुतिभिःपुष्कलामि:२१ रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोमपाश्च । गंधर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥ २२ ॥ रूप ! तुम्हारा न तो अन्त, न मध्य और न आदि ही मुझे (कहीं) देख पड़ता है। (१७) किरीट, गदा और चक्र धारण करनेवाले, चारों और प्रभा फैलाये हुए, तेज:पुंज, दमकते हुए अप्ति और सूर्य के समान देदीप्यमान, आँखों से देखने में भी अशक्य और अपरंपार (भरे हुए) तुम्ही मुझेजहाँ-तहाँ देख पड़ते हो । (१८) तुम्ही मन्तिम ज्ञेय अक्षर (ब्रह्म), तुम्ही इस विश्व के अन्तिम आधार, तुम्ही अव्यय और तुम्ही शाधत धर्म के रक्षक हो। मुझे सनातन पुरुष तुम्हीं जान पड़ते झी () जिसके न आदि है, न मध्य और न अन्त, अनन्त जिसके बाहु हैं, चन्द्र और सूर्य जिसके नेत्र हैं, प्रज्वलित अप्ति जिसका मुख है, ऐसे अनन्त शक्तिमान तुम ही अपने सेज से इस समस्त जगत् को तपा रहे हो तुम्हारा ऐसा रूप में देख रहा हूँ। (२०) क्योंकि भाकाश और पृथ्वी के बीच का यह (सब) अन्तर और सभी दिशाएँ अकेले तुम्हीं ने व्याप्त कर डाली हैं है महात्मन् ! तुम्हारे इस अद्भुत और उग्र रूप को देख कर त्रैलोक्य (डर से) व्यथित हो रहा है । (२१) यह देखो, देवताओं के समूह, तुममें प्रवेश कर रहे हैं, (और) कुछ भय से हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहे हैं। (एक) स्वस्ति,स्वस्ति' कह कर महीष और सिद्धों के समुदाय अनेक प्रकार के स्तोत्रों से तुम्हारी स्तुति कर रहे हैं। (२२) रुद्र और आदित्य, वसु और साध्यगण, विश्वेदेव, (दोनों) मधिनीकुमार, मरुद्गण, उषमपा अर्थात् पितर और गन्धर्व, यक्ष, राक्षस एवं सिद्धों के झुण्ड के मुाण्ड सभी विस्मित हो कर तुम्हारी ओर देख 1 [श्राद्ध में पितरों को जो अन्न अर्पण किया जाता है, उसे दे तमी तक प्रहण करते हैं जब तक कि वह गरमागरम रहे, इसी से उनको 'उपमपां' कहते हैं (मनु. ३. २३७)। मनुस्मृति (३. १६४-२००) में इन्ही पितरी के सोमसद् अनिवात्त, बाहेरह, सोपमा, हविष्मानू, आप्रपा और सुझानिये
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