गीता, अनुवाद और टिप्पणी-११ अध्याय । श्रीभगवानुवाच । $$ पश्य में पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥५॥ पश्यादित्यान्वसून रुद्रानश्विनी मरुतस्तथा । घहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥६॥ इहैकस्थं जगत्कृत्तं पश्याय सचराचरम् । मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्रष्टुमिच्छसि ॥ ७॥ न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥ ८॥ संजय उवाच । 56 एवमुफ्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरी हरिः। ईथरी स्वरूप को देखा चाहता है" (देखो गीता. १०.१४)। परन्तु दोनों पक्कियों को मिला कर एक ही वाक्य मानना ठीक जान पड़ता है और परमार्थप्रपा टीका में ऐसा किया भी गया है चौथे श्लोक में जो योगेश्वर' शब्द है, उसका अर्थ योगों का (योगियों का नहीं) ईश्वर है ( १८.७५)। योग का अर्थ पहले (गी. ७. २५ चौर १.५) अन्यक्त रूप से व्यक्त सृष्टि निर्माण करने का सामर्थ्य अथवा युक्ति किया जा चुका है। अब उस सामर्थ्य से ही विश्वरूप दिखजाना है, इस कारण यहाँ योगेश्वर ' सम्योधन का प्रयोग सहेतुक है।] श्रीभगवान् ने कहा-(५) हे पार्थ ! मेरे अनेक प्रकार के, अनेक रसों के, और पाकारों के (इन) सैकड़ों अथवा इज़ारों दिव्य रूपों को देखो । (१) यह देखो (पारह) प्रादित्य, (आठ) वसु, (ग्यारह) रुद्र, (दो) अश्विनी कुमार, और () मरुद्रण । हे भारत ! ये अनेक आश्चर्य देखो कि जो पहले कभी भी न देखे होंगे। नारायणीय धर्म में नारद को जो विश्वरूप दिखलाया गया है, उसमें यह विशेष वर्णन है कि बाई ओर बारह श्रादित्य, सन्मुख पाठ वसु, दहिनी भोर ग्यारह रुद्र और पिछली ओर दो अश्विनीकुमार थे (शां. ३३६. ५०-५२)। परन्तु कोई भावश्यकता नहीं कि यही वर्णन सर्वत्र विवक्षित हो (देखो ममा. 5. १३०)। आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और मरगण ये वैदिक देवता है, और देवतामों के चातुर्वण्र्य का भेद महाभारत (शां. २०८. २३, २८)में यों बतलाया है, कि आदित्य क्षत्रिय हैं, मरुद्रण वैश्य हैं, और अश्विनीकुमार शूद्र है। देखो शतपथ ब्राह्मण १४. ४. २. २३ ।] (७) हे गुडाकेश ! आज यहाँ पर एकत्रित सव चर-अचर जगत् देख ले; और भी तो कुछ तुझे देखने की लालला हो वह मेरी (इस) देह में देख ले ! ()परन्तु तू अपनी इसी दृष्टि से मुझे देख न सकेगा, तुझे मैं दिव्य दृष्टि देता हूँ, ( इससे ) मेरे इस ईश्वरी योग अर्थात् योग-सामर्थ्य को देख !
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