गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र एकादशोऽध्यायः। अर्जुन उवाच । मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् । यत्त्वयोक्तं वचस्तन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १॥ भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया । त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चान्ययम् ॥ २॥ एवमेतद्ययात्य त्वमात्मानं परमेश्वरा द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुपोत्तम ॥ ३ ॥ मन्यसे यदि तच्छत्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ ४॥ ग्यारहवाँ अध्याय । [जब पिछले अध्याय में भगवान् ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया, तब एसे सुन कर अर्जुन को परमेश्वर का विश्वरूप देखने की इच्छा हुई । भगवान् ने उसे जिस विश्वरूप का दर्शन कराया, उसका वर्णन इस अध्याय में है। यह वर्णन इतना सरस है, कि गीता के उत्तम मागों में इसकी गिनती होती है और अन्यान्य गीतामों की रचना करनेवाला ने इसी का अनुकरण किया है। प्रथम अर्जुन पूर्वता इ. कि-] अर्जुन ने कहा-(७) मुझ पर अनुग्रह करने के लिये तुमने अध्यात्म संज्ञक जो परम गुप्त बात बतताई, उसले मेरा यह मोह जाता रहा। (२) इसी प्रकार हे कमल- पत्राक्ष ! भूतों की उत्पत्ति, लय, और (तुम्हारा) अक्षय माहाल्य भी मैंने तुमसे विस्तार सहित सुन लिया। (२) (अव) हे परमेश्वर ! तुमने अपना जैसा वर्णन किया है, ई पुरुषोत्तम! मैं तुम्हारे दस प्रकार के ईश्वरी स्वरूप को (प्रत्यब) देखना चाहता हूँ। (४) हे प्रभो! यदि तुम समझते हो कि उस प्रकार का रूप में देख सकता हूँ, तो हे योगेश्वर ! तुम अपना अव्यय स्वरूप मुझे दिखलाओ। [सातवें, अध्याय में ज्ञान-विज्ञान का प्रारम्भ कर, सातवें और आठवें में परमेश्वर के अक्षर अथवा प्रत्यक्त रूप का तथा नवें एवं दसवें में अनेक न्यक रूपों का जो ज्ञान यतलाया है, उसे ही अर्जुन ने पहले श्लोक में अध्यात्म' कहाँ है। एक अन्यक से अनेक व्यक्त पापों से निर्मित होने का जो वर्णन सातवें (४-१५), आठवें (१६-२४), और नवें (४-८) अध्यायों में है, वहीं भूतों की उत्पत्ति और लय' इन शब्दों से दूसरे लोक में अभिप्रेत है। तीसरे लोक के दोनों अधीशों को, दो मिन-भिन्न वाक्य मान कर कुछ लोग उनका ऐसा अर्य करते हैं, कि परमेश्वर ! तुमने अपना जैसा (स्वरूप का) वर्णन किया, वह सत्य है (अर्थात् मैं समझ गया); अब इ पुरुषोत्तम! मैं तुम्हारे
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