मोक्षस्थ अथवा कर्मयोगशास्त्र । दशमोऽध्यायः। श्रीभगवानुवाच । भूय एव महाशको शणु मे परमं पंचा। यतेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१॥ न मे विदुः सुरगणाः प्रम न महर्षयः। अहमादिहि देवाला महीणां च सर्वशः ॥ २॥ यो मामजमादिः पात्त लोकमहेश्वरम् । मलमूढः स मत्य सर्वपापैः अनुच्यते ॥ ३॥ कर्मयोग का अभ्यास करता रहेगा वो (देखोगी. ७..) कर्मबन्धन से मुक्त हो करके निःसन्देह मुझे पा लेगा। इसी उपदेश की पुनरावृत्ति ग्यारहवें अध्याय फे अन्त में की गई है। गीता का रहस्य भी यही है। भेद इतना ही है कि उस रहस्य को एक बार अध्यात्मष्टि और एक बार भकि दृष्टि से पतला दिया है। इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये अर्थात कहे दुए उपनिषद् में, महावियान्तर्गत पोग-मर्याद कामयोग-शानविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, राजविधा. राजगुरुयोग नामक नवा अध्याय समाप्त हुआ। दसवाँ अध्याय। [पिछले अध्याय में कर्मयोग की सिद्धि के लिये, परमेश्वर के सक स्वरूप की उपासना का जो राजमार्ग बतलाया गया है, उसी का इस अध्याय में वर्णन हो रहा है। और अर्जुन के पूछने पर परमेश्वर के अनेक व्यक्त रूपों अथवा विभूतियों का वर्णन किया गया है। इस वर्णन को सुन कर अर्जुन के मन में भगवान के प्रत्यय स्वरूप को देखने की इच्छा हुई। अतः ११वें अध्याय में भगवान ने उसे विश्वरूप दिखना कर कृतार्थ किया थे।] श्रीभगवान ने कहा-(१) हे महाबाहु ! (मेरे भाषण से) सन्तुष्ट होनेषाने तुझसे, तेरे हितार्य में फिर (एक) अच्छी बात कहता हूँ, उसे सुन । (२) देव. ताओं के गण और महर्षि भी मेरी उत्पत्ति को नहीं जानते, क्योंकि देवताओं और महर्षियों का सब प्रकार से मैं ही आदि कारण है। () जो जानता है कि, मैं (पृथिवी आदि सब) झोकों का बड़ा ईश्चर हूँ और मेरा जन्म तथा प्रादि नहीं है। मनुष्यों में वही मोह-विरहित होकर सब पापों से मुक होता है। [ऋग्वैर के नासदीय सूक्त में यह विचार पाया जाता है, कि भगवान् या पिरस देवताओं के भी पहने का है, देवता पीछे से हुए (देसी गीतार. प्र.१ i.२५४)। इस प्रकार प्रस्तावना हो गई । अब भगवान् इसका निरूपण परवं कि मैं सब का मंहेबर कैसे हूँ-1
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