गीता, अनुगद और टिप्पणी-वार। $$ गेपि यदासि यज्जुहोषि ददाति यत् । मतपस्यसि कौंतेय सत्पुरुष्य मदर्पणम् ॥ २७ ॥ शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यले कर्मनंधनैः । संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो गसुपैयसि ॥२८॥ समोऽहं सर्वभूतेषु न मे प्योस्ति न प्रियः । Is ये भजन्ति सु मां भक्त्या मयि ते तेषु बाप्यहम् ।।२९ ॥ (२७) कान्तय ! जो (कुछ) करता है, जो खाता है, जो होम हवन करता है, जो शान करता ६ (और) जो तय करता है, वह (सब) मुझे अर्पण किया पर । (स) इस प्रकार बर्तन ले (कर्म करके भी)कों के शुभ-अशुभ फल. रुप पन्धनों से मुक रहंगा, और (काफलों के) संपास करने के इस योग से युफामा र शुद्ध प्रसारण भोकर मुना हो जायगा एवं मुझमें मिल जायगा। । [इससे प्रगट होता कि भगवाफ भी एमगार्पणादि से समस्त कर्म करे, एं छोड़ न दे। इस टि ले ये दोनों लोक महत्व हैं। प्रत्यार्प मर विः" राह ज्ञान-यज्ञ कातरव है (गी. ४. २४), इसे ही भक्ति की परि- भाषा के अनुसार इस लोक में बतलाया है (देतो गीतार. पृ. ४३० और १३१)। तीसरे ही सध्याय में अर्जुन से कह दिया है कि "मयि सवाणि कर्माणि संन्यास " (गी. ३.३०)-मुझ में सब कर्मों का संन्यास करके-युद्ध कर; और पाच पध्याय में फिर कहा कि “ ग्राम में कर्मों को अर्पण करके सह- शहित फर्म करनेपाले को, फर्ग का लेप नहीं लगता" (५.१०)। गीता के मतानुसार यही यथार्थ संन्यास ई (गी. १८.२)। इस प्रकार अर्थात् कर्म. फमाशा छोड़ कर (संन्यास) सन काँ को करनेवाला पुरुप ही नित्यसंन्याली है (गी. ५.३) कर्मत्यागरूप संपास गीत को सम्मत नहीं है। पीछे अनेक स्थलों पर फह चुके हैं, कि इस रीति से किये हुए फर्म माल के लिये प्रतिबन्धक नहीं होते (जी. २. ६४, ३. १६, ४. २३ ५.१ ६.1 ८.७), और इस श्लोक में उसी यात को फिर कहा है। भागवतपुराण में भी मृसिंहसर भगवान् मे प्रसाद को यह उपदेश किया है कि "मय्यावश्य मनस्तान कुरु कर्माणि मिस्परः"-मुझमें चित्त लगा कर सब काम किया कर (भ ग. ७. १०. २३). और धागे एकादश इन्ध में भक्तियोग का यह तस्व यतलाया है कि भगवद्भक्त सप कर्मों को नारायणार्पण कर दे (देखो भाग. १. २. ३६ और ११.११. २४) । इस अध्याय के प्रारम्भ में वर्णन किया है कि भक्ति का मार्ग सुख- फारश और सुलभ है। द असले समस्यरूपी दूसरे गड़े पौर विशेष गुण का वर्णन करते हैं- (२८) मैं सब को एक सा हूँ। म मुझे (कोई) द्वेष्य अर्थात् अप्रिय है और ज(कोई) यारा । भन्कि से लो मेरा भजन मते हैं, वे सुमसे है और मैं भी
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