पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७८५

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गीतारहस्य भयका कर्मयोगशाला 8 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥२६॥ लोक में भगवान ने जो यह कहा है कि " सय यज्ञों का मोक्ता में ही उसका तात्पर्य यही है। महाभारत में भी कहा है- यस्मिन् यस्मिन विषये यो यो याति विनिश्यम् । सतमेवाभिजानाति नान्यं भरतसचम ॥ "जो पुरुप जिस भाव में निश्चय रखता है, वह उस भाव के अनुरूप ही फन पाता है" (शां. ३५२. ३), और श्रुति भी है "यं यथा योपासते तदेव भवति" (गी. ८.६ की टिप्पणी देखो)। अनेक देवताओं की उपासना करणे. वले को (नानात्व से), जो फल मिलता है उसे पहले चरण में पतला कर सिरे चरण में यह अवर्णन किया है कि अनन्य भाव से भगवान की भकि करनेवालों को ही सची भगवत्प्राप्ति शेती है। अब भक्तिमार्ग के महत्व का यह ताव वतनाते हैं, कि भगवान् इस और म देख कर कि हमारा मक हमें क्या समर्पण करता है, केवल उसके भाव की ही और ष्टि दे करके इसकी मिति को स्वीकार करते हैं- (२६) जो मुझे भक्ति से एक प्राध पत्र, पुष्प, फज अथवा (यथाशफि) थोड़ा सा जल भी अर्पण करता है. उस प्रयतास्म अर्थात् नियतचित्त पुरुष की भक्ति की सेंट की मैं (आनन्द से) ग्रहण करता हूँ। [कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है (गी. २. १८)-यह कर्मयोग का साव है। इसका जो रूपान्तर भकिमार्ग में हो जाता है, उसी का वर्णन एक श्लोक में है (देखो गीनार. पू. ४७३-४७५)। इस विषय में सुदामा के तन्दुलों की बात प्रसिद्ध है और यह श्लोक भागवताराण में, सुशमा-चरित के उपाख्यान में मी आया है (भाग. १०. उ. ८१. ४)। इसमें सन्देह नहों, कि पूजा के द्रव्य अथवा सामग्री का न्यूनाधिक होना सर्वथा और सर्वदा मनुष्य के हाथ में नहीं भी रहता । इसी से शास्त्र में कहा है, कि यथाशक्ति प्रात होनेवाले स्वरुप पूजा- विष्य से ही नहीं, प्रत्युत शुद्ध भाव से समपंग किये हुए मानासिक पूजा द्रव्यों से भी भगवान् सन्तुष्ट हो जाने हैं। देवता भाव का सुखा है, न कि पूजा की सामग्री का मीमांसक-मार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग में जो कुछ विशंपता है, वह यही है । यज्ञ-याग करने के लिये बहुत सी सामग्री सुदानी पड़ती है और उद्योग भी बहुत करना पड़ता है पान्तु भाक-यज्ञ एक तुलपीदल से भी हो जाता है। महाभारत में कथा है कि जब दुर्वासाऋपि घर पर आये, तब द्रौपदी ने इसी प्रकार के यज्ञ से भगवान् को सन्तुष्ट किया था। भगवद्भक जिस प्रकार अपने कर्म करता है, अर्जुन को उसी प्रकार करने का उपदेश देकर बतलाते हैं, कि इसस या स सिखता है-