गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशाल। मंत्रोऽहमहमेवाप्यमहमग्निरहं हुतम् ॥१६॥ पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च ॥ २७ गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहत् । प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमन्ययम् ॥१८॥ तपाम्यहमहं वर्ष निगृहास्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ १९ ।। (१६) ऋतु अर्थात् श्रीत यज्ञ में हूँ,यज्ञ अर्थात् स्मात यज्ञ मैं हूँ, स्वधा प्रभात श्राद्ध में पितरों को अर्पण किया हुआ अन्न मैं हूँ, औषध भयांत् वनस्पति से (यज्ञ के अर्थ) उत्पन्न हुआ अन्न मैं हूँ, (यज्ञ में हवन करते समय पढ़े जानेवाले ) मन्त्र मैं हूँ, धृत-अग्नि और (अग्नि में छोड़ी हुई) माहुति मैं ही हूँ। I [मूल में ऋतु और यज्ञ दोनों शब्द समानार्थक ही है। परन्तु जिस प्रकार "यज्ञ' शब्द का अर्थ व्यापक हो गया और देवपूजा, वैश्वदेव, अतिथि सत्कार, प्राणायाम एवं जप इत्यादि कमी को भी 'यज्ञ' कहने लगे (गी. ४.२३-३०), उस प्रकार 'ऋतु' शब्द का अंर्थ बढ़ने नहीं पाया । श्रौतधर्म में अश्वमेध आदि जिन यज्ञों के लिये यह शब्द प्रयुक्त हुधा है, उसका वही अर्थ आगे भी स्थिर रहा है। अतएव शांकरमाप्य में कहा है, कि इस स्थल पर 'ऋतु' शब्द से 'श्रीत' यज्ञ और 'यज्ञ' शब्द से सात' यज्ञ समझना चाहिये और ऊपर हमने यही अर्थ किया है । क्योंकि ऐसा न करें तो 'ऋतु' और 'यज्ञ' शब्द समानार्थक होकर इस- लोक में उनकी अकारण द्विरुक्ति करने का दोप लगता है। (१७) इस जगत् का पिता, माता, धाता (आधार), पितामह (वावा) मैं हूँ, जो कुछ पवित्र या जो कुछ ज्ञेय ई वह और ॐकार, ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं हूँ, (१८) (सव की) गति, (सब का) पोपक, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सखा, एत्पत्ति, प्रलय, स्थिति, निधान और प्रत्यय वीज मी में हूँ। (1) हे अर्जुन ! मैं उष्णता देता हूँ, मैं पानी को रोकता और वरसाता हूँ अमृत और मृत्यु, सत् और असत् भी मैं हूँ। í [परमेश्वर के स्वरूप का ऐसा ही वर्णन फिर विस्तार सहित १०, ११ और १२ अध्यायों में है । तथापि यहाँ केवल विभूति न वतला कर यह विशेषता दिखलाई है, कि परमेश्वर का और जगत् के भूतों का सम्बन्ध मा-बाप और मित्र इत्यादि के समान है। इन दो स्थानों के वर्णनों में यही भेद है। ध्यान रहे कि पानी को बरसाने और रोकने में एक क्रिया चाहे हमारी दृष्टि से फायदे की और दूसरी नुकसान की हो, तथापि तात्त्विक दृष्टि से दोनों को परमेश्वर ही करता है। इसी अभिप्राय को मन में रख कर पहले (गी.७. १२) वान् ने कहा है कि सात्त्विक, रामस और तामस सब पदार्थ मैं ही उत्पन्न करता हूँ और आगे
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