. गीता, अनुवाद और टिप्पणी - ६ अध्याय । ७३६ IS मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेप्ववस्थितः ॥ ४॥ न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे यांगमैश्वरम् । भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५॥ यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् । तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ।। ६॥ [गीतारहस्य के तेरहवें प्रकरण (पृ. ५११-४१६) में दूसरे श्लोक के "राजविद्या," राजगुण, ' और 'प्रत्यक्षावगम 'पदों के अधों का विचार किया गया है। ईश्वर-प्राप्ति के साधनों को उपनिषदों में विद्या' कहा है और यह विद्या गुप्त रखी जाती थी । कहा है कि भक्तिमार्ग अथवा व्यक्त की उपासनारूपी विद्या सब गुए विद्याओं में श्रेष्ठ अथवा राजा है। इसके अतिरिक्त यह धर्म पाखों से प्रत्यक्ष देख पड़नेवाला और इसी से आचरण करने में सुलभ है। तथापि इक्ष्वाकुँ प्रभृति राजाओं की परम्परा से ही इस योग का प्रचार हुआ है, (गी. ४.२), इसलिये इस मार्ग को राजाओं अर्थात् बड़े प्रादमित्रों की विद्या-राजविद्या-कह सकेंगे। कोई भी अर्थ क्यों न लीजिये, प्रगट है कि अक्षर या अव्यक्त बम के ज्ञान को लक्ष्य करके यह वर्णन नहीं किया गया है किन्तु राजविद्या शब्द से यहाँ पर भक्तिमार्ग झी विवक्षित है। इस प्रकार प्रारम्भ में ही इस मार्ग की प्रशंसा कर भगवान् अय विस्तार से उसका वर्णन करते हैं-] (७) मैंने अपने अध्यक्त स्वरूप से इस समग्र जगत को फैलाया यथया व्यास किया है। मुझमें सब भूत हैं, (परन्तु) मैं उनमें नहीं हूँ। (५) और मुझमें सब भूत भी नहीं हैं ! देखो, (यह कैसी) मेरी ईश्वरी करनी यो योगसामर्थ्य है ! भूतों को उत्पन्न करनेवाला मेरा मारमा, उनका पालन करके भी (फिर) उनमें नहीं है। (६) सर्वन वाहनेवाली महान् वायु जिस प्रकार सर्वदा आकाश में रहती है, उसी प्रकार सब भूतों को मुझमें समझा। । [यह विरोधाभास इसलिये होता है कि परमेश्वर निर्गुण भी है और सगुण भी । (सातवें अध्याय के १२वें श्लोक की टिप्पणी, और गीतारहस्य पृ. २०५, २०८ और२०६ देखो)। इस प्रकार अपने स्वरूप का प्राश्चर्यकारक वर्णन करके अर्जुन की जिज्ञासा को जागृत कर चुकने पर भय भगवान् फिर कुछ फेर-फार से वही वर्णन प्रसङ्गानुसार करते हैं, कि जो सातवें और आठवें अध्याय में पहले किया जा चुका है-अर्थात् इम से व्यक्त सृष्टि किस प्रकार होती है और हमारे व्यक्त रूप कौन से हैं (गी. ७.४-१८८.१७-२०) ।'योग' शब्द का अर्थ यद्यपि अलौकिक सामर्थ्य या युक्ति किया जाय, तथापि स्मरण रहे कि अव्यक्त से व्यक होने के इस योग अथवा युक्ति को ही माया कहते हैं। इस विषय का प्रतिपादन गीता ७. २५ की टिप्पणी में और रहस्य के नवम प्रकरगा (पृ. २३६ - २४०) में
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७७८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।