गीता, अनुवाद और टिप्पणी-- अध्याय । ७३५ अन्यक्ताद्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्याहरागमे । राज्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ १८ ॥ भूतग्रामः स एवायं भुत्वा भूत्वा प्रलीयते । रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ १९ ॥ SS परस्तस्मातु भावोऽन्योऽध्यक्तोऽध्यक्तासनातनः । यः स सर्वप भूतपु नश्यत्तु न विनश्यति ॥ २०॥ अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ २१ ॥ पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। यस्यांतःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ।। २२ ।। फा और भित है। गीतारहस्य के आठवें प्रकरण (प. १९३) में इसका पूरा खुलासा है, कि अव्यक्त ले व्यक्त रष्टि कैसे होती है और करप के काल-मान का हिसाब भी वहीं लिखा है।] (१)(ब्रह्मदेव के) दिन का प्रारम्भ होने पर अव्यक्त से लय व्यक्त (पदार्थ) निर्मित होते हैं और रात्रि होने पर उसी पूर्वोक्त अध्यक्त में लीन हो जाते हैं । (१६) हे पार्थ ! भूतों का यही समुदाय (म प्रकार) बार बार उसन होकर अवय होता दुमा, अर्थात् इच्छा हो या न हो, रात होते ही लीन हो जाता है और दिन होने पर (फिर) जन्म लेता है। H [अर्थात् पुण्य कमाँ से नित्य मसलोकवास प्राप्त भी हो जाय, तो मी प्रलय-काल में, ब्रह्मलोक ही का नाश हो जाने से फिर नये कल्प के श्रारम्भ में प्राणियों का जन्म होना नहीं छूटता । इससे बचने के लिये जो एक ही मार्ग है, उसे बतलाते है-] (२०) किन्तु इस पर यतलाये हुए अव्यक्त से परे दूसरा सनातन अव्यक पदार्थ है, कि जो सब भूतों के नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता, (२१) जिस अव्यक्त को 'अक्षर' (भी)कहते हैं, जो परम भर्थात् उत्कृष्ट या अन्न की गति कहा जाता है। (और, जिसे पाकर फिर (जन्म में) लौटते नहीं हैं, (यही) मेरा परम स्थान है । (२४) हे पार्थ! जिसके भीतर (सव) भूत हैं और जिसने इस सब को फैलाया अथवा ध्यान कर रखा है, वह पा अर्थात् श्रेष्ठ पुरुप अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है। [वीसवाँ और इफीसवाँ श्लोक मिल कर एक वाक्य पना है । २० वें श्लोक का' अन्यक' शब्द पहले सांख्यों की प्रकृति को, अर्थात् १८ श्लोक के अन्यक्त द्रव्य को लक्ष्य करके प्रयुक्त है और आगे वही शब्द सांख्यों की प्रकृति से परे, परवा के लिये भी उपयुक्त हुआ है। तथा २१ वें श्लोक में कहा है कि इसी दूसरे भव्यक्त को 'अदर भी कहते हैं। अध्याय के आरम्भ में भी “ अचरं
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