पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७७२

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी- अध्याय । प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगवलेन चैव । झुपोमध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषलुपैति दिव्यम् ॥ १० ॥ थदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतया पोतरागाः। सदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पद संग्रहण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥ सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हदि निरुद्धय च। मून्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥ १२ ॥ ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ १३ ॥ S$ अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । भयांत् श्राधार या कर्ता, अचिन्त्यस्वरूप और अन्धकार से परे, सूर्य के समान देदीप्यमान पुरुष का स्मरण करता है, वह (मनुष्य) उसो दिव्य परम पुरुष में जा मिलता है। (११) वेद के जाननेवाले जिसे अक्षर कहते हैं, वीतराग हो कर पति लोग जिसमें प्रवेश करते हैं मार जिसकी इच्छा करके प्रहाचयंवत का माघरण करते हैं, वह पद अर्थात् कारमा तुझ संक्षेप से बतलाता हूँ। (१२) सब (इन्द्रियरूपी) द्वारों का संयम कर और मन का हृदय में निरोध करके (एवं) मस्तक में प्राण ले जा कर समाधियोग में स्थित होनेवाला, (१३) इस एकावर बस ॐका जप और मेरा स्मरण करता हुआ जो (मनुष्य) देव छोड़ कर जाता है, बसे उत्तम गति मिलती है। i [श्लोक-११ में परमेश्वर के स्वरूप का जो वर्णन है, वह उपनिषदों से लिया गया है। नवें श्लोक का “प्रणोरणीयान् " पद और अन्त का चरण श्वेताश्वतर उपनिषद् का है (वे. ३.८और ९), एवं ग्यारहवें श्लोक का पूर्वाधं अर्थतः और उत्तरार्ध शब्दशः कठ उपनिषद् का है (कठ. २. १५)। कउ उप. निपद में “ तत्ते पई संग्रहेण प्रवीमि " इस चरण के प्रांगे " प्रोमित्येतत् " स्पष्ट कहा गया है। इससे प्रगट होता है कि ११ श्लोक के अक्षर' और 'पद' शब्दों का अर्थ ॐ वर्णातर रूपी ग्रस अथवा शब्द लेना चाहिये और १३ बैं लोक से भी प्रगट होता है कि यहाँ कारोपासना ही उद्दिष्ट है (देखो प्रश्न.५.)। तथापि यह नहीं कह सकते, कि भगवान् के मन में 'अक्षर' अविनाशी बम, और 'पद परम स्थान, ये अर्थ भी न होंगे। क्योंकि, , वर्णमाला का एक अक्षर है, इसके सिवा यह कहा जा सकेगा कि वह ब्रह्म के प्रतीक के नाते अविनाशी भी है (२१ वा लोक देखो)। इसलिये ११ वें श्लोक के अनुवाद में अक्षर' और 'पद' ये दुहरे अर्थवाले मूल शब्द ही हमने रख लिये हैं। अब इस उपासना से मिलनेवाली उत्तम गति का प्राधिक निरूपण करते हैं- (१४) हे पार्थ ! अनन्य भाव से सदा-सवंदा जो मेरा निय स्मरण करता 6