पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७७१

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७२२ गतिरहस्य अथवा फर्मयोगशाला + तस्मात्सर्वेषु कालपु मामनुस्मर युद्धध। मयपिंतमनोबुद्धिर्मामेवग्यस्यसंशयम् ॥ ७ ॥ अभ्यासयोगयुक्तंन चेतसा नान्यगामिना । परम पुरुष दिव्यं याति पार्यानुचितयन् ॥ ८॥ कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरंधः । सर्वस्य धातारमचित्यम्पमादित्यवर्ण तमतः परस्तात्॥९॥ पाते । (गी. ७. २३८. १३और ६.२५) क्योंकि छांदोग्य उपनिषद् के कप- । नानुसार "थपा मारामिडोफे पुरुषो भवति ततः प्रेस्य भवति" (.३. 12.)-इसी श्लोक में मनुन्य का सा तु मन मल्ल होता है। मरने पर से येसी हो गति मिलती मान्दोग्य के समान और उपनिषदों में भी ऐसे ही पाप है (म.३.१० मन्यु. ४.६) । परन्तु गीता भव यह कहती है कि जन्मभर एक ही भावना से मन की गे बिना भन्तकान की यातना के समय वही भावना विपर नहीं रह सकती। अतएव भामरणान्त, जिन्दगी मर, परमेश्वर का म्यान धरना मावश्यक है (ये. ४. 1. १२)-इस सिद्धान्त के अनुसार अर्जुन से भगवान् कहा है, कि] (1) इसलिये सर्वकाज-सदेवं ही-मेरा स्मरण करता रह और युद्ध कर । मुस- में मन और बुद्धि मर्पण करने से (पुद करने पर भी) मुझमें ही निःसन्देह मा मिलेगा । (८) हे पार्य ! चित्त को दूसरी मोर न जाने देकर अभ्यास की सहायता से ससको स्थिर फरक दिग्य परन पुरुप का ध्यान करते रहने से मनुष्य वसी पुरुष में जा मिलता है। [जो लोग भगवद्गीता में इस विषय का प्रतिपादन बतलाते हैं कि संसार को खोड़ दो, भौर केवल भक्ति का ही भवनम्य करो, उन्हें सातव लोक के सिदान्त की मार अवश्य ध्यान देना चाहिये । मोच तो परमेश्वर की ज्ञानयुक्त भक्ति से निजता है। और यह निर्विवाद ई, कि मरगा-समय में भी उसी भकि के स्थिर रहने के लिये जन्मभर वही अभ्यास करना चाहिये। गीता का यह मामिप्राय नहीं कि इसके लिये को को छोड़ देना चाहिये। इसके विरुद गीताशास्त्र का सिदान्त कि भगवद्भक को स्वधर्म के अनुसार जो कर्म प्राप्त होते जाय इन सब को निष्कामादि से करते रहना चाहिये, और उसी सिद्धान्त को इन शब्दों से व्यक किया है कि "मेरा सदैव चिन्तन कर और युद्ध कर "भय बतलाते हैं कि पर- मेश्वरापंग यदि से जन्ममर निष्काम कर्म करनेवाले कर्मयोगी भन्तकान में भी दिव्य पान पुरुष का चिन्तन, किस प्रकार से करते है-] (६-१०)जो (मनुष्य) अन्तकाल में (इन्द्रिय-निग्रहल्प) योग के सामग्य से, मरियुक्त हो कर मन को स्थिर करके दोनों माहा के बीच में प्राप्य को भली भांति कवि मर्यात सर्वज्ञ, पुरातन, शास्ता, मणु से भी बोटे, सब के धाता रख कर,