४० गीतारहस्य मयमा कर्मयोगशाला अपवादरहित कहा जा सकता है ? नहीं । इस जगत् में सिर्फ जिंदा रहना ही कुछ पुरुषार्थ नहीं है। कौए भी काक-बलि खा कर कई वर्ष तक जीते रहते! यही सोच कर वीरपत्नी विदुला अपने पुत्र से कहती है कि, विद्धाने पर पड़े पड़े सड़ जाने या घर में सौ वर्ष की आयु को व्यर्थ व्यतीत कर देने की अपेक्षा, यदि तू एक क्षण मी अपने पराक्रम की ज्योति प्रगट करके मर जायगा तो अच्छा होगा- " मूहूर्त वलिन श्रेयो न च धूमायितं चि" (ममा. उ. ३२.१५) । यदि यह बात सच है कि बाज नहीं तो कल, अंत में सौ वर्ष के बाद मरना ज़रूर ई (भाग. १०.१.३८: गी. २.२७); तो फिर उसके लिये रोने या दरने से क्या लाम है। अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से तो आत्मा नित्य और अमर है। इसलिये नृत्यु का विचार करते समय, सिर्फ इस शरीर काही विचार करना यांकी रह जाता है। अच्छा; यह तो सब जानते हैं कि यह शरीर नाशवान् है; परन्तु प्रात्मा के कल्याण के लिये इस नगर में जो कुछ करना है उसका एक मात्र साधन यही नाशवान् मनुष्यदेह है। इसी लिये मनु ने कहा है "श्रात्मानं सततं रक्षेत दाररपि धनरपि "- अर्यात् स्त्री और सम्पत्ति की अपेक्षा हमको पइने स्वयं अपनी ही रक्षा करनी चाहिये (मनु. ७.२३) । यद्यपि मनुष्य-देह दुर्लम और नाशवान भी है तथापि, जब उसका नाश करके उससे भी अधिक किसी शाश्वत वस्तु की प्राप्ति कर लेनी होती है, (जैसे देश, धर्म और सत्य के लिये अपनी प्रतिज्ञा, बत और विरद की रक्षा के लिये एवं इज्जत कीर्ति और सर्वभूतहित के लिये) तय, ऐसे समय पर, अनेक महात्माओं ने इस तीव कर्तव्याग्नि में आनन्द से अपने प्राणों की भी आहुति दे दी है! जब राजा दिलीप, अपने गुरु वसिष्ट की गाय की रक्षा करने के लिये, सिंह को अपने शरीर का बलिदान देने को तैयार हो गया, तब वह सिंह से बोला कि हमारे समान पुरुषों की " इस पाञ्चभौतिक शरीर के विषय में मनास्या रहती है, अतएव तु मेरे इस जड़ शरीर के बदले मेरे यशल्पी शरीर की भोर ध्यान दे" (खु. २.५७) । कथासरित्सागर और नागानन्द नाटक में यह वर्णन है कि सपा की रक्षा करने के लियेजीमूतवाइन ने गरुड़ को स्वयं अपना शरीर अर्पण कर दिया। मृच्छकटिक नाटक (१०.२७) में चारुदत्त कहता है:- न भीतो मरणादस्मि फेवलं पितं यशः। विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्रजन्मसमः किल || • मैं मृत्यु से नहीं डरता; मुझे यही दुःख है कि मेरी कीर्ति कलाकेत हो गई । यदि कीर्ति शुद्ध रहे और मृत्यु मी आ जाय, तो मैं उसको पुत्र के उत्सव के समान मानूंगा।' इसी तत्त्व के आधार पर महामारत (वन. १०० तथा १३, शां.३४२) में राजा शिवि और दधीचि ऋपि की कयाओं का वर्णन किया है। जब धर्म-(यम) राज, श्येन पक्षी का रूप धारण करके, कपोत के पीछे उड़े और जब वह कपोत अपनी रक्षा के लिये राजा शिवि की शरण में गया तब राजा ने स्वयं अपने शरीर का मांस काट कर उस श्येन पक्षी को दे दिया और शरणागत कपोत की रक्षा की ! वृत्रासुर
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