७३० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। 88 अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । 1 [तीसरे श्लोक का ‘परम ' शब्द ब्रह्म का विशेषण नहीं है किन्तु अचर का विशेषण है। सांख्यशास्त्र में अध्यक्त प्रकृति को भी 'अक्षर' कहा है (गी. १५. १६) । परन्तु वेदान्तियों का ब्रह्म इस अव्यक्त और अझर प्रकृति के मी परे का है (इसी अध्याय का २० वा और ३१ वा श्लोक देखो) और इसी कारण अकेले 'अक्षर' शब्द के प्रयोग से सांख्यों की प्रकृति अथवा ब्रह्म दोनों अर्थ हो सकते हैं। इस सन्देह को सेटने के लिये अचर' शब्द के आगे 'परम विशेषण रख कर ब्रह्म की व्याख्या की है (देखो गीतार. पृ.२०१-२०२)। इमने स्वभाव ' शब्द का अर्थ महाभारत में दिये हुए उदाहरणों के अनुसार किसी भी पदार्थ का सूक्ष्मस्वरूप ' किया है । नासदीय सूक में दृश्य जगत् को परब्रह्म की विष्टि (विसर्ग) कहा है (गी. २. पृ. २५४); और विसर्ग शब्द का वही अर्थ यहाँ लेना चाहिये । विसर्ग का अर्थ यज्ञ का इविरुत्सर्ग' करने की कोई जरूरत नहीं है । गीतारहस्य के दसवें प्रकरण (पृ. २६२ ) में विस्तृत विवेचन किया गया है, कि इस दृश्य सृष्टि को ही कर्म क्यों कहते है। पदार्थ मात्र के नाम-रूपात्मक विनाशी स्वरूप को 'चर' कहते हैं और इससे परे जो अक्षर तत्व है उसी को ब्रह्म समझना चाहिये । 'पुरुष 'शब्द से सूर्य का पुरुप, जल का देवता या वरुणपुरुष इत्यादि सचेतन सूक्ष्म देहधारी देवता विवक्षित हैं और हिरण्यगर्भ का भी उसमें समावेश होता है । यहाँ भगवान् ने 'अधियज्ञ' शब्द की व्याख्या नहीं की । क्योंकि, यज्ञ के विषय में तीसरे और चौथे अध्यायों में विस्तारसहित वर्णन हो चुका है और फिर आगे भी कहा है, कि " सब यज्ञों का प्रभु और भोका मैं ही हूँ" (देखो गी. ६. २४, १५.२९; और ममा. शां. ३४०) । इस प्रकार अध्यात्म आदि के लक्षण वतना कर अन्त में संक्षेप से कह दिया है कि इस देह में 'अधियज्ञ' मैं ही हूँ अर्थात् मनुष्य-देह में अधिदेव और अधियज्ञ भी मैं ही हूँ । प्रत्येक देह में पृथक्- पृथक् आत्मा (पुरुष) मान कर सांख्यवादी कहते हैं कि वे असंख्य हैं । परन्तु वेदान्तशास्त्र को यह मत मान्य नहीं है। उसने निश्चय किया है कि यद्यपि देह अनेक है तथापि आत्मा सव में एक ही है (गीतार. पृ. १६५-१६६)। 'अधि- देह मैं ही हूँ' इस वाक्य में यही सिद्धान्त दर्शाया है तो भी इस वाक्य के "मैं ही" शब्द केवल अधियज्ञ अथवा अधिदेह को ही उद्देश करके प्रयुक्त नहीं है, उनका सम्बन्ध अध्यात्म आदि पूर्वपदों से मी है ! अतः समग्र अर्थ ऐसा होता है, कि नेक प्रकार के यन, अनेक पदार्थों के अनेक देवता, दिनाशवान् पंचमहाभूत, पदार्थमान के सूक्ष्म माग अथवा विभिन्न आत्मा, ब्रह्म, कर्म अथवा भिन्न-भिन्न मनुष्यों की देह-इन सब में मैं ही हूँ,' अर्थात् सव में एक ही परमेश्वरतत्व है। कुछ लोगों का कथन है कि यहाँ : प्राधिदेह-' स्वरूप
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७६९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।