पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीता, अनुवाद और टिप्पणी-८ अध्याय । आधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥ १ ॥ आधियशः कथं कोऽत्र देोऽस्मिन्मधुसूदन । प्रयाणकाले च कथं शेयोऽसि नियतात्मभिः ॥२॥ श्रीभगवानुवाच । अक्षरं व्राम परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोभवको विसर्गः कर्मसंशितः॥ ३ ॥ अधिभूतं क्षरो भायः पुरुषश्चाधिदैवतम् । अधियशोऽएमेवान देहे देहभृतां वर ॥ ४ ॥ या जीवात्मा नहीं है, किन्तु परमात्मा है । इसी सिद्धान्त के अनुरोध से भगवान् भय अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य की देव मं, सब प्राणियों में (प्राधिभूत), सब यशों में (अधिय), सब देवताओं में (अधिदेवत), सप कर्मों में और सब यस्तों के सूक्ष्म स्परूप (अर्थात् अध्यात्म) में एक ही परमेधर समाया हुआ है यश इत्यादि नानात्य अथवा विविध ज्ञान सचा नहीं है। सात सध्याय के अन्त में भगवान ने अधिभूत प्रादि जिन शब्दों का उच्चारगा किया है, उनका अर्थ जानने की अर्जुन को इच्छा हुई; अतः वह पहले पूछता है-] अणुग ने कहा-(१) पुरुषोत्तम ! वह अक्षा क्या है? अध्यात्म क्या है ? धर्म के मानी क्या हैं? अधिभूत किसे कहना चाहिये ? और अधिदेवत किसको कहते हैं ? (२) अधियज्ञ कैसा होता है ? हे मधुसूदन ! इस देह में (अधिदेह) कौन है? और अन्तकाल में इन्द्रियनिग्रह करनेवाले लोग तुमको कैसे पहचा- नते? [घाला, प्रष्यात्म, फर्म, मधिभूत और अधियज्ञ शब्द पिलले अध्याय में आ चुके । इनके सिया अब अर्जुन ने यह नया प्रम किया है, कि प्राधिदेह कौन है। इस पर ध्यान देने से आगे के उत्तर का अर्थ समझने में कोई अड़चन न होगी।] श्रीभगवान ने कक्षा-(१) (सब से) परम अक्षर अर्थात् कभी भी नष्ट न होने- पाला ताप मला है, (और) प्रत्येक वस्तु का मूलभाव (स्वभाव) अध्यात्म कहा जाता है (अचरणम से) भूतमानादि (चर-अचर) पदार्थों की उत्पत्ति करनेवाला विसर्ग पार्थाव सृष्टिन्यापार फर्म है । (१) (अपजे हुए सब प्राणियों की) चर अर्थात मामरूपात्मक नाशवान स्थिति अधिभूत है और (इस पदार्थ में) जो पुरुष अर्थात सचेतन अधिष्ठाता है, यही अपिदैवत है (जिसे) आधियश (सब यशों का भधि- पति कहते हैं, वह) मैं ही हूँ। हे देहधारियों में श्रेष्ठ ! मैं इस देह में (माभि- गी.र. ९२