७२४ गीतारहस्यं अथवा कर्मयोगशास्त्र । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ २३ ॥ 8 अव्यक्तं व्यक्तिमापनं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममात्ययमनुत्तमम् ॥ २४ ॥ नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः । मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥ २५ ॥ स्थिर रहनेवाले नहीं है)। देवताओं को भजनेवाले उनके पास जाते हैं और मेरे भक्त मेरे यहाँ आते हैं। [साधारण मनुष्यों की समझ होती है, कि यद्यपि परमेश्वर मावदाता है, तथापि संसार के लिये आवश्यक अनेक इच्छित वस्तुओं को देने की शक्ति देव- ताओं में ही है और उनकी प्राप्ति के लिये इन्हीं देवताओं की उपासना करनी चाहिये । इस प्रकार जब यह समझ ढ़ हो गई कि देवतामों की उपासना करनी चाहिये,तब अपनी अपनी स्वामाविक श्रद्धा के अनुसार (देखोगी.१७.१-६) कोई पीपल पूजते हैं, कोई किसी चबूतरे की पूजा करते हैं और कोई किसी बड़ी भारी शिला को सिंदूर से रंग कर पूजते रहते हैं। इसी बात का वर्णन उक श्लोकों में सुन्दर रीति से किया गया है। इसमें ध्यान देने योग्य पहली बात यह है कि भिन्न-भिन्न देवताओं की पारापना से जो फल मिलता है, उसे भाराधक समझते हैं कि उसके देनेवाले वे ही देवता हैं परन्तु पर्याय से वह परमेश्वर की पूजा हो जाती है (गी. ६.२३) धौर तात्त्विक दृष्टि से वह फल भी परमेश्वर ही दिया करता है (श्लो. २२)। यही नहीं, इस देवता का माराधन करने की बुद्धि भी मनुष्य के पूर्वकर्मानुसार परमेश्वर ही देता है (लो. २१)। क्योंकि इस जगत में परमेश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वेदान्तसुत्र (३.२.३८-४१) और उपनिषद् (कौपी. ३.८) में भी यही सिद्धान्त है। इन मिन्न-भिन्न देवताओं की भक्ति करते-करते बुद्धि स्थिर और शुद्ध हो जाती है, तथा अन्त में एक एवं नित्य परमेश्वर का ज्ञान होता है-यही इन भिन्न-भिन्न उपासनाओं का उपयोग है। परन्तु इससे पहले जो फल मिलते हैं, वे सभी अनित्य होते हैं। अतः भगवान् का उपदेश है, कि इन फलों की आशा में न उलझ कर 'ज्ञानी' मत होते की उमङ्ग प्रत्येक मनुष्य को रखनी चाहिये । माना, कि भगवान सब बातों के करने वाले और फलों के दाता हैं, पर वे जिसके जैसे कर्म होंगे तदनुसार ही तो फस देंगे (गी. ४.११); अतः तात्त्विक दृष्टि से यह भी कहा जाता है, कि वे स्वयं कुछ भी नहीं करते (गी. ५. १४) । गीतारहस्य के १० वें (पृ. २६७) और ११३ वें प्रकरण (पृ. ४२६ - ४२७) में इस विषय का अधिक विवेचन है, उसे देखो। कुछ लोग यह भूल जाते हैं, कि देवताराधन का फल भी ईश्वर ही देता है और वे प्रकृति-स्वभाव के अनुसार देवताओं की धुन में लग जाते हैं। अब अपर के इसी वर्णन का स्पष्टीकरण करते ई-] (२४) अबुद्धि अर्थात मूढ़ लोग, मेरे श्रेष्ठ, उत्तमोत्तम और अन्यय रूप को न
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७६३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।