गीता, अनुवाद और टिप्पणी-७ अध्याय । ७२१ विभिगुणमयविरभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥ १३ ॥ देवी होषा गुणमयां मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥१४॥ न मां दुप्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहतशाना आसरं भावमाश्रिताः ॥ १५॥ IF चतुर्विधा भजन्त मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । परमेश्वर की अलौकिक शक्तियों के वर्णन किये गये हैं (गी. १३. १५-१६)। इस प्रकार यदि परमेश्वर की प्याति समस्त जगत से भी अधिक है, तो प्रगट है कि परमेश्वर के साचे स्वरूप को पहचानने के लिये इस मायिक जगद से भी परे जाना चाहिये, और भय उसी अर्थ को स्पष्टतया प्रतिपादन करते हैं- (१३) (साय, रज और तम) इन तीन गुणात्मक भावों से भर्यात पदार्थों से मोहित हो कर यह सारा संसार, इनसे परे के (अर्थात निर्गुण) मुझ मध्यय (परमेश्वर ) को नहीं जानता। [माया के सम्बन्ध में गीतारहस्य के चे प्रकरण में यह सिदान्त है, कि माया अपया अज्ञान त्रिगुणात्मक देहेन्द्रिय का धर्म है, न कि आत्मा कामात्मा तो ज्ञानमय और नित्य है, इन्द्रियों उसको भ्रममें सालती हैं-उसी अद्वैती सिदा- न्ति को ऊपर के श्लोक में कहा है। देखो गीतार.७.२४ और गी. र. पृ-२३६-२४७ ।। (11) मेरी यह गुणात्मक और दिव्य माया दुस्तर है। अतः इस माया को ये पार कर जाते हैं, जो मेरी ही शरण में आते हैं। । [इससे प्रगट होता है, कि सांख्यशास की निगुणात्मक प्रकृति को ही गीता में भगवान् अपनी माया कहते हैं। महाभारत के नारायणीय-उपाख्यान में कहा है, कि नारद को विश्वरूप दिखला कर अन्त में भगवान् बोले कि- माया खेपा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद । सर्वभूतगुगोर्युक्तं नैव त्वं ज्ञातुमईसि ।। "हे नारद! तुम जिसे देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। तुम मुझे सब प्राणियों के गुणों से युक्त मत समझो" (शां. ३३६.४४)। वही सिद्धान्त अब यहाँ भी बतलाया गया है । गीतारहस्य के वें और १० वें प्रकरण में बतला दिया है, फि माया क्या चीज़ है।] (१५) माया ने जिनका ज्ञान नष्ट कर दिया है, ऐसे मूढ़ श्रीर दुष्कर्मी नराधम आसुरी बुद्धि में पड़ कर मेरी शरण में नहीं पाते। } [यह पतला दिया, कि माया में डूबे रहने वाले लोग परमेश्वर को भूल जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं। अब ऐसा न करनेवाले अर्थात परमेश्वर की शरण में जा- कर उसकी भक्ति करनेवाले लोगों का वर्णन करते हैं।] गी. र.९१
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