गीता, अनुवाद और टिप्पणी-७ अध्याय । माय सर्वमिदं प्रोतं सूत्र मणिगणा इव ॥ ७ ॥ ही परमेश्वर की दो विभूतियाँ मान कर चौथे और पांच श्लोक में वर्णन किया ई कि इनमें जय प्रकृति निन्न श्रेगगी की विभूति ई और जीव अर्थात् पुरुष श्रेष्ठ श्रेणी की विभूति है और कहा कि इन दोनों से समस्त स्थावर-जगम सृष्टि उत्पन्न होती है (देखो गी. २३. २६)। इनमें से जीवभूत श्रेष्ठ प्रकृति का विस्तार सहित विचार क्षेत्र की मष्टि से भागे तेरहवें अध्याय में किया है । अब रह गई जिद-प्रकृति, सो गीता का सिद्धान्त है (देखो गी. ६, १०) कि यह स्वतन्त्र नहीं, परमेश्वर की अध्यक्षता में उससे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति होती है। यद्यपि गांता में प्रकृति को स्वतन्त्र नहीं माना है, तथापि सांख्यशाख में प्रति के जो भेव उन्ही को कुछ हेर-फेर से गीता में प्राश कर लिया है (गीतार. पृ. १७६ 1-१८३) और परमेश्वर से माया के द्वारा जड़-प्रकृति का हो चुकने पर (गी.। 1१४) सांदयों का किया हुआ यह वन, कि प्रकृति से सब पार्थ कैसे निर्मित ए अपार गुणोत्कर्ष का सत्य, भी गीता को मान्य है (देखो गीतार. पृ. २४२) । सांगयों का कपन है, कि प्रकृति और पुरुष मिल कर कुल पचीस तत्व हैं। इनमें प्रकृति से ही तेईस ताप उपजते हैं। इन तेईस तत्वों में पाँच प्यूल भूत, दस इन्द्रियाँ और मन ये सोलाए ताप, शेप सात तवों से निकले हुए अर्थात् उनके विकार हैं। प्रतएव यह विचार करते समय कि "मूल तत्व " कितने हैं, इन सोलह तावों को जोड़ देते हैं और इन्हे घोट देने से पुद्धि (महान्) सहकार मार पचतन्माना (सूक्ष्म भूत) मिल कर सात ही मूल तत्व बच रहते हैं। सांग्यशाख में इन्ही सातों को “प्रकृति-विकृति " कहते हैं। ये सात प्रकृति. विकृति और मूल-प्रकृति मिल कर सय पाठ ही प्रकार की प्रकृति हुई और मिक्षाभारत (शा.३१०. १०-१५) में इसी को अष्टधा प्रकृति कहा है। परन्तु सात प्रकृति विकृतियों क साथ ही मूल प्रकृति की गिनती कर लेना गाता को योग्य नहीं जैचा । क्योंकि ऐसा करने से यह भेद नहीं दिखलाया जाता कि एक मूल वि और उसके सात पिकार हैं। इसी से गीता के इस वर्गीकरण में, कि सात प्रकृति-विकृति और मन मिल फर अष्टधा मूल प्रकृति और महाभारत के वर्गीकरगा में थोड़ा सा भेद किया गया है (गोतार. पृ. १८३)। सारांश, यद्यपि गीता को सांयवालों की स्वतन्स प्राति स्वीकृत नही, तथापि स्मरण रहे, कि उसके अगले विस्तार का निरूपण दोनों ने वस्तुतः समान ही किया है । गीता के समान उपनिषद् में भी वर्णन है, कि सामान्यतः परब्रह्म से धी- एतस्माजायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वायुज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥ "इस (पर-पुरुष) से प्राण, मन, सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अमि, जल और विध को धारण करनेवाली पृथ्वी-ये (सब) उत्पन्न होते हैं" (मुण्ड. २. ११.३ के. १. १५; प्रश्न. ६.४)। अधिक जानना हो, तो गीतारहस्य कावाँ
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।