पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५५

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6 ७१६ गीतारहस्य अवथा कर्मयोगशास्त्र । सप्तमोऽध्याय। श्रीभगवानुवाच । मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः । " ज्ञान-विज्ञान से तृप्त हुआ " (६८) योगयुक्त पुरुष समस्त प्राणियों में परमेश्वर को और परमेश्वर में समस्त प्राणियों को देखता है" (६. २९) । अतः जब इन्द्रिय-निग्रह करने की विधि बतक्षा चुके तब, यह बतलाना आवश्यक हो गया कि 'ज्ञान' और 'विज्ञान' किसे कहते हैं, और परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान होकर फर्मों को न छोड़ते हुए भी कर्मयोग-मार्ग की किन विधियों से अन्त में निःसंदिग्ध मोक्ष मिलता है। सातवें अध्याय से लेकर सत्रहवें अध्याय के अन्त पर्यन्त- ग्यारह अध्यायों में इसी विषय का वर्णन है और अन्त के अर्थात् अठारहवें अध्याय में सब कर्मयोग का उपसंहार है। सृष्टि में अनेक प्रकार के अनेक विनाशवान् पदार्थों में एक ही अविनाशी परमेश्वर समा रहा है-इस समझ का नाम है ज्ञान, और एक ही नित्य परमेश्वर से विविध नाशवान् पदार्थों की उत्पत्ति को समझ लेना 'विज्ञान' कहलाता है (गी. १३.३०), एवं इसी को घर-भचर का विचार कहते हैं। इसके सिवा अपने शरीर में भर्यात क्षेत्र में जिसे मात्मा कहते हैं, उसके सच्चे स्वरूप को जान लेने से भी परमेश्वर के स्वरूप का बोध हो जाता है। इस प्रकार के विचार को क्षेत्रवेत्रज्ञविचार कहते हैं। इनमें से पहले चर-अचर के विचार का वर्णन करके फिर तेरहवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्र के विचार का वर्णन किया है । यद्यपि परमेश्वर एक है, तथापि उपासना की दृष्टि से उसमें दो भेद होते हैं, उसका भन्यक स्वरूप केवल बुद्धि से ग्रहण करने योग्य है और व्यक्त स्वरूप प्रत्यक्ष भवगम्य है । अतः इन दोनों मार्गों या विधियों को इसी निरूपण में बत- साना पड़ा, कि बुद्धि से परमेश्वर को कैसे पहचानें और श्रदाया भक्ति से व्यक स्वरूप की उपासना करने से उसके द्वारा अन्यक्त का ज्ञान कैसे होता है। तब इस समूचे विवेचन में यदि ग्यारह अध्याय खग गये, तो कोई भाश्चर्य नहीं है । इसके सिवा, इन दो मागों से परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही इन्द्रिय-निग्रह भी भाप ही आप हो जाता है, अतः केवल इन्द्रिय-निग्रह करा देनेवाले पातंजल-योगमार्ग की अपेक्षा मोवधर्म में ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग की योग्यता भी अधिक मानी जाती है । तो मी स्मरण रहे, कि यह सारा विवेचन कर्मयोगमार्ग के उपपादन का एक अंश है,. वह स्वतन्त्र नहीं है। अर्थात् गीता के पहले छः अध्यायों में कर्म, दूसरे पट्क में भक्ति और तीसरी पडघ्यायी में ज्ञान, इस प्रकार गीता के जो तीन स्वतन्त्र विभाग किये जाते हैं, वे तत्वतः ठीक नहीं हैं। स्थूलमान से देखने में ये तीनों विषय गीता में आये हैं सही परन्तु वे स्वतन्त्र नहीं है, किन्तु कर्मयोग के मङ्गों के रूप से. ही उनका विवेचन किया गया है। इस विषय का प्रतिपादन गीतारहस्य के चौद- हवें प्रकरणं (पृ. ४५२-४५७) में किया गया है, इसलिये यहाँ उसकी पुनरावृत्ति