पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । तत्र तं बुद्धिसंयोग लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च ततो भूयः मंसिद्धौ कुरनंदन ॥ ४३ ॥ पूर्वाभ्यासन तेनैव हियते झवशोऽपि सः। जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते । ४४ ॥ प्रयत्लायतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति पयंगतिम् ॥ ४५ ॥ (४३) उसमें अर्थात् इस प्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्वजन्म के बुद्धिसंस्कार को पाता है, और हे कुरुनन्दन ! वह उससे भूयः अर्यात अधिक (योग-सिद्धि पाचे का प्रयत्न करता है। (७) अपने पूर्वजन्म के उस अभ्यास से ही अवश अांद अपनी इच्छा न रहने पर भी, वह (पूर्ण सिद्धि की ओर) खोंचा जाता है । जिसे (कर्म-)योग की जिज्ञासा, अर्थात् जान लेने की इच्छा हो गई है वह भी शन्दबंब के परे चला जाता है । (४५) (इस प्रकार) प्रयत्न पूर्वक उद्योग करते करते पापों से शुद्ध होता हुआ (कम-योगी अनेक बन्मों के अनन्तर सिद्धि पा कर अन्त में उत्तम गति पा लेता है! [इन श्लोकों में योग, योगम्रष्ट और योगी शब्द कमयोग, कर्मयोग से अट और कर्मयोगी के अर्थ में ही व्यवहृत हैं। क्योंकि श्रीमान् कुल में जन्म लेने की स्थिति दूसरों को इष्ट होना सम्भव ही नहीं है। भगवान् कहते हैं, कि पहले से, जितना हो सके उतना, शुद्ध बुद्धि से कर्मयोग का आचरण करना भारम्म को। चौड़ा ही क्यों न हो, पर इस राति से जो कर्म किया जावेगा वही, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, इस प्रकार अधिक प्राधिक सिद्धि मिलने के लिये उचरो- र कारणीभूत होगा और उसी से अन्त में पूर्ण सद्गति मिलती है। इस धर्म का योडासा भी भावरण किया जाय तो वह बड़े भय से रक्षा करता है"(गी. १२.५०), और " अनेक जन्मों के पश्चात् वासुदेव की प्राप्ति होती है" (.te), ये लोक इसी सिद्धान्त के पूरक हैं। अधिक विवेचन गीतारहस्य पृ.२८२-२५ में किया गया है । १४वेंशोक के शव का अर्थ है वैदिक यज्ञ-याग आदि काम्य कर्म । क्योंकि ये धर्म वेदविहिन हैं और वेदों पर श्रद्धा रख कर ही ये किये जाते हैं, तया वेद अर्यात सब सृष्टि के पहले पहल का शब्द यानी शन्दबक्ष है।प्रत्येक मनुष्य पहले पहल सभी कम काम्यनुदि से किया करता है परन्तु इस कर्म से जैसी बैसी चित्तशुद्धि होती जाती है वैसे ही वैसे आगे निकाम बुद्धि से कर्म करने की इच्छा होती है। इसी से उपनिपदों में और महाभारत में मी (मैन्यु. ६. २२ अमृतबिन्दु. १०; ममा. शां. २३१. ६३ ६.१) यह वर्णन है कि- देब्रहपी वैदिक्तव्ये शब्दवह्म परं च यत् । शुन्दवाणि रिष्याता परं ब्रह्माधिगच्छति ।।