गोवारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। के साथ जो प्रतिज्ञाएँ की थी उन्हें मेट दिया और उसको मार डाला। ऐसी ही कथा पुराणों में हिरण्यकशिपु की है। व्यवहार में भी कुछ कौन-करार ऐसे होते हैं कि जो न्यायालय में बेकायदा समझे जाते हैं या जिनके अनुसार चलना अनुचित माना जाता है । मर्जुन के विषय में ऐसी एक कथा महाभारत (कर्ण. ६९) में है। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मुझ से कहंगा कि " तू अपना गांडीव धनुप किसी दूसरे को दे दे" उसका सिर मैं तुरन्त ही काट डालूंगा । इसके बाद युद्ध में जव युधिष्ठिर कर्ण से पराजित हुआ तव उसने निराश हो कर अर्जुन से कहा "वेरा गांडीव हमारे किस काम का है? तू उसे छोड़ दे!" यह सुन कर अर्जुन हाथ में तलवार ले युधिष्ठिर को मारने दौड़ा! उस समय भगवान् श्रीकृष्ण वहीं थे। उन्हों ने तत्वज्ञान की दृष्टि से सत्यधर्म का मार्मिक विवेचन करके भर्जुनको यह उपदेश किया कि " तू मूढ़ है, तुझे अब तक सूक्ष्म-धर्म मालूम नहीं हुआ है, तुझे वृद्ध जनों से इस विषय की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये, न वृद्धाः सविता. स्त्वया'-तू ने वृद्ध जनों की सेवा नहीं की है-यदि तू प्रतिज्ञा की रक्षा करना ही चाहता है तो तू युधिष्ठिर की निर्भर्त्सना कर, फ्याँकि सभ्यजनों की निर्भत्सना मृत्यु ही के समान है। इस प्रकार वोध करके उन्हों ने अर्जुन को जेष्ठनातृवध के पाप से वचाया। इस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने जो सत्यानृत-विवेक अर्जुन को बताया है, उसीको आगे चल कर शान्तिपर्व के सत्यानृत नामक अध्यायमें मीम ने युधिष्ठिर से कहा है (शां.१०८)। यह उपदेश व्यवहार में लोगों के ध्यान में रहना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि इन सूक्ष्म प्रसंगों को जानना बहुत कठिन काम है। देखिये, इस स्थान में सत्य की अपेक्षा भ्रातृधर्म ही श्रेष्ठ माना गया है और गीता में वह निश्चित किया गया है कि बंधुप्रेम की अपेक्षा क्षात्रधर्म प्रवल है। जव अहिंसा और सत्य के विषय में इतना वाद-विवाद है वव पाश्चर्य की यात नहीं कि, यही हाल नीतिधर्म के तीसरे तत्त्व अर्थात् अस्तेय का भी हो । यह वात निर्विवाद सिद्ध है कि, न्यायपूर्वक प्राप्त की हुई किसी की संपत्ति को चुरा ले जाने या लूट लेने की स्वतंत्रता दूसरों को मिल जाय तो गुन्य का संचय करना बंद हो जायगा, समाज की रचना विगड़ जायगी, चारों तरफ़ अनवस्था हो जायगी और सभी की हानि होगी। परन्तु इस नियम के भी अपवाद हैं। जव, दुर्भिक्ष के समय, मोल लेन, मजदूरी करने या मिक्षा माँगने से भी अनाज नहीं मिलता; तब, ऐसी आपत्ति में, यदि कोई मनुष्य चोरी करके आत्मरक्षा करे, क्या वह पापी समझा जायगा? महाभारत (शां. १४१) में यह कथा है कि किसी समय बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रक्षा और विश्वामिन पर बहुत बड़ी आपत्ति आई। तव उन्हों ने किसी श्वपच (चाण्डाल) के घर से कुत्ते का मांस चुराया और वे इस अमक्ष्य भोजन से अपनी रक्षा करने के लिये प्रवृत्त हुए । उस समय श्वपच ने
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