गीता, अनुवाद और टिप्पणी-६ अध्याय । ७०५ $$ यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवाचतिते । निःस्पृहः सर्वकामभ्या युक्त इत्युच्यते तदा ॥१८॥ यथा दीपो निवातस्थो गत सोपमा स्मृता। योगिनो यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मनः॥१९॥ यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसंषया। यत्र चैवात्मनाऽऽत्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥२०॥ सुखमात्यंतिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतींद्रियम् । कि इस अध्याय में पाताल-गोग ही स्वतन्त्र रीति से प्रतिपाद्य है। पहले स्पष्ट थिसला दिया है, कि कर्मयोग को सिद्ध कर लेना जीवन का प्रधान कर्तव्य है और सिसके साधन मात्र के लिये पातजन-योग का यह वर्णन है। इस श्लोक के " कर्म के सचित आचरण" इन शब्दों से भी प्रकट होता है, कि अन्यान्य कमी को करते पहुए इस योग का अभ्यास करना चाहिये । अय योगी का थोड़ा सा वर्णन करके समाधि-सुख का स्वरूप बतजाते हैं- (१८) जब संयत मन आत्मा में ही स्थिर हो जाता है, और किसी भी उपभोग की इच्छा नहीं रहती, तय कहते हैं कि वह युक्त' हो गया। (१) वायुरहित रपान में रखे हुए दीपक की ज्योति जैसी निश्चल होती है, वही उपमा चित्त को संयत करके योगाभ्यास करनेवाले योगी को दी जाती है। [इस उपमा के अतिरिक्त महाभारत (शान्ति. ३००. ३२, ३४) में ये दृष्टान्त हैं- तेज से भरे हुए पात्र को जीने पर से ले जाने में, या तूफान के समय नाव का बचाव करने में मनुष्य जैसा युक्त' अथवा एकाग्र होता है, योगी का मन वैसा ही पुकाम रहता है"। कठोपनिषद् का, सारची और रथ के घोड़ीवाला, दृष्टान्त तो प्रसिद्ध ही है। और यद्यपि वह दृष्टान्त गीता में स्पष्ट माया नहीं है. तथापि दूसरे अध्याय के ६७ प्ररि ६ तथा इसी अध्याय का २५ वां श्लोक, ये उस दृष्टान्त को मन में रख कर ही कहे गये हैं। यद्यपि योग का गीता का पारिमापिक भर्थ कर्मयोग है, तथापि उस शब्द के अन्य अर्थ भी गीता में आये हैं। उदाहरणार्थ, ६.५और १०.७ श्लोक में योग का अर्थ है भली- किक अथवा चाहे जो करने की शक्ति " यह भी कह सकते हैं, कि योग शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण ही गीता में पासअल-योग और सांख्य मार्ग को प्रतिपाद्य बतलाने की सुविधा उन-उन सम्प्रदायवालों को मिल गई है। १९३ लोक में वर्णित चित्त-निरोधरूपी पातअल-योग की समाधि का स्वरूप ही अब विस्तार से कहते हैं-] (२०) योगानुष्ठान से निरुद्ध चित्त जिस स्थान में रम जाता है, और जही स्वयं मात्मा को देख कर आत्मा में ही सन्तुष्ट हो रहता , (२१) जहाँ (केवल) बुद्धि- बम्य और इन्द्रियों को अगोचर पात्यन्त सुख का उसे अनुभव होता है और नई गी.र.८९
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