Wor गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । युखन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः। शान्ति निर्वाणएरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥१५॥ नात्यक्षतस्तु योगोऽस्ति न चकांतमनश्यतः। न चातिस्वप्तशीलस्य जाप्रतो नैव चार्जुन, ॥ १६ ॥ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वमावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥ है, कि गीता में हठयोग विचडित नहीं । ऐसे ही इस अध्याय के अन्त में कहा है, कि इस वर्णव का यह देश नहीं कि कोई अपनी सारी जिन्दगी योगाम्यास में ही बिता दे। अब इसी योगाभ्यास के फल का अधिक निरूपण करते हैं-] (१५) इस प्रकार सदा अपना योगाभ्यास जारी रखने से मन काव में होकर (कर्म) योगी को मुझमें रहनेवाली और अन्त में निर्वागा-प्रद अर्थात् मेरे स्वरूप में लीनकर देनेवाली शान्ति पात होती है। [इस श्लाक में 'सदा' पद से प्रतिदिन के २४ घण्टा का मतलब नहीं इतना ही अर्य विवक्षित है, कि प्रतिदिन यथाशक्ति घड़ी-घड़ी भर यह अभ्यास करे (लोक १० की टिप्पणी देखो)। कहा है, कि इस प्रकार योगाभ्यास करत हुआ' सचित्त' और 'मत्परायण' हो। इसका कारण यह है कि पातंजन- योग मन के निरोध करने की एक युक्ति या क्रिया है। इस कसरत से यदि मन स्वाधीन हो गया तो वह एकाग्र मन भगवान् में न लगा कर और दूसरी बात को और भी लगाया जा सकता है। पर गीता का कथन है, कि चित्त की एका- ग्रता का ऐसा दुरुपयोग न कर, इस एकाग्रता या समाधि का उपयोग परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने में होना चाहिये, और ऐसा होने से ही यह योग सुखकारक होता है अन्यथा ये निरे क्लेश हैं। यही अर्थ आगे २९, ३०, एवं मध्याय के अन्त में वें श्लोक में फिर चाया है। परमेश्वर में निष्ठीन रख जो लोग केवल इन्द्रिय-निग्रह का योग, या इन्द्रियों की कसरत, करते हैं, वे लोगों को केश- प्रद लारण, मारण या वशीकरण वगैरेह कम करने में ही प्रवीण हो जाते हैं। यह अवस्था न केवल गीता को ही, प्रत्युत शिली मी मोक्षमार्ग को इष्ट नहीं । अब फिर इसी योग-क्रिया का अधिक खुलासा करते हैं-] (६) हे अजुन ! अतिशय खानेवाले या विलकुल न सानेवाले और खूब सोनवाने अथवा लागरण करनेवाले को (यह) योग सिद्ध नहीं होता । () जिसका आहार- बिहार नियत है, कर्मों का आचरण नपा-तुला है और सोना-जागना परिमित है, यसको (पह) योग दुःख-घातक अर्थात् सुखावह होता है। [इस लोक में योग से पातंजलन की क्रिया और 'युक्त से स्पिमित, नपी-तुली अथवा परिमित का अर्थ है। आगे भी दो-एक स्थानों पर योग से पाञ्जल-यौहर का ही अर्थ है। तथापि इतने ही से यह नहीं समझ लेना चाहिये,
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