पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७४२

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गीती, अनुवाद और टिप्पणी-६ अध्याय । ७०५ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलानिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥ तोकानं मनः कृत्वा यतचित्तेंद्रियक्रियः उपविश्यासने युज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।। १२ ।। समं कायशिरोग्रीवं धारयनचलं स्थिर। संप्रेक्ष्य नासिकानं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतमीलचारिखते स्थितः । मनः संयम्य मचिचो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥ [अगले श्लोक से स्पष्ट होता है, कि यहाँ पर 'युओत ' पद से पाताल सूत्र का योग विवक्षित है । तथापि इसका यह अर्थ नहीं, कि कर्मयोग को प्रास कर लेने की इच्छा करनेवाला पुरुष अपनी समस्त प्रायु पाताल योग में विता दे। कर्मयोग के लिये आवश्यक साम्यवृद्धि को प्राप्त करने के लिये साधन-स्वरूप पातंजल योग इस अध्याय में वर्णित है, और इतने ही के लिये एकान्तवास भी आवश्यक है। प्रकृति-स्वभाव के कारण सम्भव नहीं कि सभी को पातंजलयोग की समाधि एक ही जन्म में सिद्ध हो जाय । इसी अध्याय के अन्त में भगवान ने कहा है, कि जिन पुरुषों को समाधि सिद्ध नहीं हुई है, वे अपनी सारी आयु पातंजल-योग में ही न विता दें किन्तु, जितना हो सके उतना, बुद्धि को स्थिर धरके फर्मयोग का पाचरण करते जावें, इसी से अनेक जन्मों में उनको अंत में सिद्धि मिल जायगी। गीतार. पृ. २८२-२८५ देखो।] (११) योगाभ्यासी पुरुष शुद्ध स्थान पर अपना स्थिर प्रासग लगावे, जोकि न बहुत ऊंचा हो और न नीचा, उस पर पहले दर्भ, फिर सुगबाला और फिर वस्त्र विसावे (१२) वहाँ चित्त और इंद्रियों के व्यापार को रोक कर तथा मन को एकाग्र काके आत्मशुद्धि के लिये आसन पर बैठ कर योग का अभ्यास करे । (१३) काय अर्थात् पीठ, मस्तक और गर्दन को सम करके अर्थात् सीधी खड़ी रेखा में निश्चल करके, स्थिर होता हुआ, दिशाओं को यानी इधर-उधर न देखे और अपनी नाक की नोक पर दृष्टि जमा कर, (१४) निडर हो, शान्त अन्तःकरण से ब्रह्मचर्य-व्रत पान कर तथा मन का संयम करके, मुझ में ही चित्त लगा कर, मत्परायण होता हुमा युक्त हो जाय। ['शुद्ध स्थान में ' और 'शरीर, ग्रीवा एवं शिर को सम कर ' ये शब्द श्वेताश्वतर उपनिषद् के हैं (वे. २.८और १० देखो); और ऊपर का समूचा वर्णन भी हठयोग का नहीं है, प्रत्युत पुराने उपनिषदों में जो योग का वर्णन है, उससे बाधिक मिलता-जुलता है। हठयोग में इन्द्रियों का निग्रह बलात्कार से किया जाता है पर आगे इसी अध्याय के २४ वें श्लोक में कहा है कि ऐसा न करके !" मनसैव इन्द्रियमाम विनियम्य "--मन से ही इन्द्रियों को रोके । इससे प्रगट