गोवारहस्य अश्वा कर्मयोगशास्त्र । यदा हि नेंद्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्यते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगासहस्तदोच्यते ॥४॥ 88 उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । "क्षम' कम होता है। भगवान कहते हैं, कि प्रथम साधनावस्था में कमी शिम का अर्थात् योगसिद्धि का कारण है।माव यह है कि यवाशति नियामकर्म करते करते ही चित्त शान्त होकर पी के द्वारा अन्त में पूर्ण योगसिदिसे जाती है। किन्तु योगी के योगारुड़ होकर सिद्धावस्था में पहुंच जाने पर कर्म मौर शिम झा उक्त कार्यकारण-माव बदल जाता है यानी कर्म शम का कारण नहीं होता, किन्तु शम ही कर्म का कारण यन जाता है, अयात् योगाढ पुरुष अपने सब काम अब कतन्य समझकर, फल की प्राशन रस करके, शान्तचित से किया करता है। सारांश: इस लोक का भावार्थ यह नहीं है, कि सिदावस्था में कम छूट जाते हैं; गीता का कथन है. कि साधनावस्था में 'कर्म' और 'शम' के बीच जो कार्य-कारण माव होता है. सिर्फ वही सिदावस्या में बदल जाता है (गीतारहस्य पृ.३२२, ३२३) गीता में यह कहीं भी नहीं कहा, कि कर्म- योती को अन्त में कर्म छोड़ देना चाहिये, और ऐसा कहने का उद्देश भी नहीं है। अतएव अवसर पा कर किसी ढंग से गीता के बीच के ही किसी का संम्बासप्रधान अवलगाना उचित नहीं है। आजकल गीता बहुतेरों को दुर्गेधसी हो गई है, इसका कारण भी यहां है। भगले शोक की व्याख्या ममी भर्ष म्वक होता है, कि योगरूड़ पुरुष को कर्म करना चाहिये । वह शोक गह-1 () क्योंकि यम वह इन्द्रियों के (शब्द-सर्ग प्रादि) विषयों में और कमों में अनुषक नही होता तया सब सकर अर्थात् कान्यदि रूप फनाशा का (प्रत्वव कोका नहीं) संन्यास करता है, तब उसको योगारुद कहते हैं। [कह सकते हैं, कि यह लोक पिछले छोक के साय और पहले तीनां शोक के साथ भी मिला हुआ है, इससे गीता का वह अमिमाय सष्ट होता है कि योगारूढ पुरुष को कर्म नछोड़ कर केवल फलाशा या काम्यनुदि छोड़ करके शास्त चित्त से निष्काम-कर्म करना चाहिये। संकल का संन्यार'ये शन्द अपर दूसरे शोक में आये हैं, वहाँ इनका जो अपं है वही इस लोक में भी लेना चाहिये। कर्मोग में ही फलाशा-त्यागरूपी संन्यास का समावेश होता है, और फनाशा छोड़ कर कम करनेवाले पुरुष को ही सच्चा संन्यासी और योगी अर्याद योगारूड़ कहना चाहिये । अब यह बतलाते हैं, कि इस प्रकार के निकाम कर्मयोग का फिलाशा-संन्यास की सिद्धि प्राप्त कर लेना प्रत्येक मनुष्य के अधिकार में है। बो स्वर्व प्रयत्न करेगा, उसे इसका प्राप्त हो जाना कुछ असंभव नहीं-] (१) (मनुष्य) अपना उदार आप ही करें। अपने आप को (कमी मी) गिरने न दे। क्योंकि (प्रत्येक मनुष्य ) स्वयं ही अपना वन्तु (अपात सहाबकाया
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