पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७३४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी - ५ अध्याय। I योऽतासुखोऽतरारामस्तांतज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मानिर्वाणं ब्राह्मभूतोऽधिगच्छति ॥२४॥ लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मपाः। छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ २५ ॥ कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । आभितो ब्रह्मानिर्वाण वर्तते विदितात्मनाम् ॥ २६॥ स्पर्शान्कृत्वा बहिर्वाद्यांश्चक्षुश्चैवांतरे भूवोः । प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यंतरचारिणौ ॥ २७ ॥ यतेंद्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८॥ 'पाल' शब्द का प्रयोग किया है। इसी में 'युक्त' शब्द की व्याख्या भी आ गई है। सुख-दुःखों का त्याग न कर समबुद्धि से उनको सहते रहना ही युक्तता का सप्या लक्षण है। गीता. २.६१ पर टिप्पणी देखो।] (२८) इस प्रकार (चाप सुख-दुःखों की अपेक्षा न कर) जो अन्तःसुखी अर्थात् अन्तःकरण में ही सुखी हो जाय, जो अपने आप में ही आराम पाने लगे, और ऐसे ही जिसे (यह) अन्तःप्रकाश मिल जाय, वह (कर्म) योगी ब्रारूप हो जाता है एवं उसे ही ब्रह्मानिर्वाण अर्थात् प्रम में मिल जाने का मोक्ष प्राप्त हो जाता है । (२५) जिन पियों की द्वन्दपुद्धि छूट गई है अर्थात् जिन्होंने इस ताव को जान लिया है, कि सय स्थानों में एक ही परमेश्वर है, जिनके पाप नष्ट हो गये हैं और जो प्रात्मसंयम से सब प्राणियों का हित करने में रत हो गये हैं, उन्हें यह नामनिर्वाणरूप मोक्ष मिलता है। (२६) काम-क्रोधविरहित, भात्मसंयमी और आत्मज्ञानसम्पन्न यतियों को अमितः अर्थात् भासपास या सन्मुख रखा हुआसा (बैठे बिठाये) नामनिर्वाणरूप मोन मिल जाता है। (२७) बालपदार्थों के (इन्द्रियों के सुख दुःखदायक) संयोग से अलग हो कर, दोनों भौंहों के बीच में दृष्टि को जमा कर और नाक से चलनेवाले प्राण एवं अपान को सम करके. (२८) जिसने इन्द्रिय, मन और युद्धि का संयम कर लिया है, तथा जिसके भय, इच्छा और क्रोध छूट गये है, वह मोतपरायण मुनि सदा-सर्वदा मुक्त ही है। । [गीतारहस्य के नवम (पृ. २३३, २४६) और दुशम (पृ. २९९ ) प्रक- रणों से ज्ञात होगा, कि यह वर्णन जीवन्मुकावस्था का है। परन्तु हमारी राय में टीकाकारों का यह कथन ठीक नहीं, कि यह वर्णन संन्यासमार्ग के पुरुष का है। संन्यास और कर्मयोग, दोनों मागों में शान्ति तो एक ही सी रहती है, और उतने ही के लिये यह वर्णन संन्यासमार्ग को उपयुक्त हो सकेगा। परन्तु. इस मध्याय के प्रारम्भ में कर्मयोग को श्रेष्ठ निश्चित कर फिर २५ वें श्लोक में जो यह कहा है, कि ज्ञानी पुरुप सब प्राणियों का हित करने में प्रत्यक्ष मान रहते हैं,