गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुका कामकारेण फले सक्तो निवध्यते ॥ १२ ॥ सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्त सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥१३॥ $ न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग स्वमावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जंतवः ॥ १५ ॥ 'इन्द्रियः शब्द के पछि है, तथापि वह शरीर, मन और बुद्धि को भी लागू है (जी. १. २१ देखो)। इसी से अनुवाद में उसे शरीर' शब्द के समान ही अम्म शब्दों के पीछे भी लगा दिया है। जैसे ऊपर के माठ और नवे शोक में कहा है, वैसे ही यहाँ भी कहां है, कि अहंकार-बुद्धि एवं फलाशा के विषय में भासति छोड़ कर केवल कायिक, केवल वाचिक या केवल मानसिक कोई भी कर्म किया जाय, तो कर्ता को उसका दोष नहीं लगता । गीता ३. २७१ १३. २६ और . १६ देखो। अहंकार के न रहने से जो कर्म होते हैं, वे सिर्फ इन्द्रियों के हैं और मन भादिक सभी इन्द्रियाँ प्रकृति के ही विकार है, अतः ऐसे कर्मों का बन्धनं का को नहीं लगता । अब इसी अर्थ को शास्त्रानुसार सिद्ध करते हैं- (१२) जो युक्त अर्थात् योगयुक्त होगया, वह कर्म-फश छोड़कर अन्त की पूर्ण शान्ति पाता है और वो अयुक्त है अर्थात् योगयुक्त नहीं है, वह काम से अर्थात् वासना से फल के विषय में सक्त हो कर (पाप-पुण्य से) वद हो जाता है । (१३) सबका की मन से (प्रत्यक्ष नहीं) संन्यास कर, जितेन्द्रिय देहवान् (पुरुष) नौ द्वारों के इस (दहरूपी) नगर में न कुछ करता और न कराता हुआ पानन्द से पड़ा रहता है। [वह जानता है, कि आत्मा अकर्ता है, खेल तो सब प्रकृति का है और इस कारण स्वस्थ या उदासीन पड़ा रहता है (गीता. १३. २० और १८. ५ देखो)।दोनों आँख, दोनों कान, नासिका के दोनों छिद्र, मुख, मूत्रेन्द्रिय, और गुद-ये शरीर के नौ द्वार या दरवाज़े समझे जाते हैं। अध्यात्म दृष्टि से यही पिपत्ति वतनाते हैं, कि कर्मयोगी कमों को करके भी युक कैसे बना रहता है-1 (१४) प्रभु अर्थात् प्रात्मा या परमेश्वर लोगों के कर्तृत्व को, उनके कर्म को, (या उनको प्राप्त होनेवाले) कर्मफल के संयोग को भी निर्माण नहीं करता । स्वभाव अर्थात् प्रकृति ही (सब कुछ) किया करती है। (१५) विमु अर्थात् सर्वव्यापी आत्मा या परमेश्वर किसी का पाप और किसी का पुण्य भी नहीं लेता । ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ा रहने के कारण (अर्थात माया से) प्राणी मोहित हो खाते हैं। I [इन दोनों श्लोकों का तत्व असन मसाल्पशास्त्र का है (गीतार. पृ.
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