गीता, अनुवाद और टिप्पणी-५ अध्याय । नैव किंचित्करोमीति युको मन्येत तत्त्वचित् । पश्यन्शृण्वन्स्पृशजिननश्ननगच्छन्स्वपन्श्वसन् ॥ ८॥ प्रलपन्धिसृजन्गृहन्नुन्मिपन्निमिपन्नपि । इंद्रियाणींद्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ९ ॥ ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा ॥ १०॥ कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिद्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये ॥ ११ ॥ मात्मा हो गया, यह सब कर्म करता हुमा भी (फों के पुण्य-पाप से) अजित रहता है। (5) योगयुक्त तत्ववेत्ता पुरुषको समझना चाहिये, कि मैं कुछ भीनहीं करता;" (भार) देखने में, सुनने में स्पर्श करने में, वास लेने में, खाने में चलने में, सोने में, साँस लेने छोड़ने में, (6) बोलने में, विसर्जन करने में, लेने में, आँखों के पक्षक खोजने भौर बन्द करने में भी, ऐसी बुद्धि रख कर व्यवहार करे कि (केवल) इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में वर्तती है। । [अन्त के दो श्लोक मिल कर एक वाक्य बना है और उसमें बतलाये हुए सय कर्म मिस मिन इन्द्रियों के व्यापार है। उदाहरणार्थ, विसर्जन करना गुद का, लेना हाथ का, पलक गिराना मागावायु फा, देखना आँखों का, इत्यादि। " मैं कुछ भी नहीं करता " इसका यह मतलब नहीं कि इन्द्रियों को चाहे जो करने दे; किन्तु मतलय यह है, कि मैं इस अहसार-शुद्धि के छूट जाने से अंचे. तन इन्द्रियाँ भाप ही आप कोई बुरा काम नहीं कर सकती और वे प्रात्मा के काबू में रहती है। सारांश, कोई पुरुष ज्ञानी हो जाय, तो भी.श्वासोच्छ्वास आदि इन्द्रियों के कर्म उसकी इन्द्रियाँ करती ही रहेंगी। और तो क्या, पन मरजीवितं रहना भी कर्म ही है। फिर यह भेद कहाँ रह गया, कि संन्यासमार्ग का ज्ञानी पुरुष कर्म छोड़ता और कर्मयोगी करता है ? फर्म तो दोनों को करना ही पड़ता है। पर महंकार-युक्त प्रासक्ति छूट जाने से वे ही कर्म बन्धक नहीं होते, इस कारण आसक्ति का छोड़ना ही इसका मुख्य तत्व है और उसी का अब अधिक निरूपण करते हैं-] (१०) जो प्रस में अर्पण कर प्रासकि-विरहित कर्म करता है, उसको वैसे ही पाप नहीं लगता, जैसे कि कमल के पत्ते को पानी नहीं लगता। (११) (अतएव ) कर्म- योगी (ऐसी अाहकार बुद्धि न रख कर कि मैं करता हूँ, केवल) शरीर से, (केवल) मन से, (केवल) बुद्धि से और केवल इन्द्रियों से भी, आसक्ति छोड़ कर, आत्मशुद्धि के लिये कर्म किया करते हैं। । [कायिक वाचिक मानसिक प्रादि कर्मों के भेदों को लक्ष्य कर इस श्लोक में शरीर, मन और बुद्धि शब्द भाये हैं। भूल में ययपि केवः विशेषण
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