६६० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। निद्वो हि महावाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ सांख्ययोगौ पृथग्वालाः प्रवदन्ति न पंडिताः । एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोविन्दिते फलम् ॥ ४॥ यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एक सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥५॥ संन्यासस्तु महावाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुको मुनिब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति ॥ ६॥ योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेंद्रियः।. सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥ क्योंकि हे महावाहु अर्जुन ! जो (सुख-दुःख मादि) द्वन्द्वों से मुक्त हो जाय वह अनायास ही (काँ के सव) बन्धों से मुक्त हो जाता है ।(१) मूर्ख लोग कहते हैं, कि सांख्य (कर्मसंन्यास) और योग (कर्मयोग) भिन्न-भिन्न हैं परन्तु पंदित लोग ऐसा नहीं कहते । किसी भी एक मार्ग का भली भांति आचरण करने से दोनों का फल मिल जाता है। (५) जिस (मोक्ष) स्थान में सांख्य (मार्गवाले लोग) पहुंचते हैं, वहीं योगी अर्थात् कर्मयोगी भी जाते हैं। (इस रीति से ये दोनों मार्ग) सांख्य और योग एक ही हैं, जिसने यह जान लिया उसी ने (ठीक तत्त्व को) पहचाना । () हे महावाहु ! योग अर्थात् कर्म के विना संन्याल को प्राप्त कर लेना कठिन है। जो मुनि कर्मयोग-युक्त हो गया, उसे ब्रह्म की प्राप्ति होने में विलम्ब नहीं लगता। 1 [सातवें अध्याय से ले कर सत्रहवें अध्याय तक इस बात का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, कि सांख्यमार्ग से जो मोक्ष मिलता है, वही कर्मयोग से अर्थात् कर्मों के न छोड़ने पर भी मिलता है। यहाँ तो इतना ही कहना है, कि मोक्ष की दृष्टि से दोनों में कुछ फर्क नहीं है, इस कारण अनादि काल से चलते आये हुए इन मार्गों का भेद-भाव वढ़ा कर झगड़ा करना उचित नहीं है और आगे मी यही युक्तियाँ पुनः पुनः आई हैं (गी. ६.२ और १८. १, २ एवं उनकी टिप्पणी देखो)।" एक सांस्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति" यही श्लोक कुछ शब्द- मेद से महाभारत में भी दो बार भाया है (शां.३०५. १६७३५६.४) संन्यास- मार्ग में ज्ञान को प्रधान मान लेने पर भी उस ज्ञान की सिद्धि कर्म किये बिना नहीं होती. और कर्ममार्ग में यद्यपि कर्म किया करते हैं, तो भी वे ज्ञानपूर्वक होते हैं, इस कारण ब्रह्म-प्राप्ति में कोई बाधा नहीं होती (गी. ६.२), फिर इस झगड़े को बढ़ाने में क्या नाम है, कि दोनों मार्ग मिन्न-भिन्न हैं? यदि कहा बाय कि कर्म करना ही बन्धक है, तो अब बतलाते हैं कि यह आप भी निष्काम कर्म के विषय में नहीं किया जा सकता -] (७)जो (कर्म) योगयुक्त हो गया, जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया, जिसने अपने मन और इन्द्रियों को जीत लिया और सब प्राणियों का भात्मा ही जिसका
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