गीता, अनुवाद और टिप्पणी-५ अध्याय । ६८९ > तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥२॥ शेयः स नित्यसंन्यासी यो न देष्टिन फांक्षति। सा नहीं है! यदि भगवान् का यह मत होता, कि ज्ञान के पश्चात कों की भाव- श्यकता नहीं है, तो क्या वे अर्जुन को यह उत्तर नहीं दे सकते थे, कि इन दोनों में संन्यास श्रेष्ठ है"? परन्तु ऐसा न करके उन्हों ने दूसरे श्लोक के पहले चरण में पतलाया है, कि "कमो का फरना और छोड़ देना, ये दोनों मार्ग एक । हीसे मोक्षदाता है" और आगे 'तु' अर्थात् परन्तु पद का प्रयोग करके जय भगवान ने निःसंदिग्ध विधान किया है, कि तयोः' अर्थात इन दोनों मार्गों में कर्म छोड़ने के मार्ग की अपेक्षा कर्म करने का पद ही अधिक प्रशस्त (श्रेय) तय पूर्णतया सिद्ध हो जाता है, कि भगवान् को यही मत प्राप्त है, कि साधनावस्था में ज्ञानप्राप्ति के लिये किये जानेवाले निष्काम कमी को ही. शानी पुरुप भागे सिद्धावस्था में भी लोकसंग्रह के अर्थ मरणापर्यन्त कर्तव्य समझ कर करता रहे। यही अर्थ गीता ३.७ में वर्णित है, यही । विशिष्यते पद यहाँ भी है और उसके अगले श्लोक में अर्थात् गीता ३.८ में ये स्पष्ट शब्द फिर भी हैं, कि “ अफर की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ है। इसमें सन्देह नहीं कि पनिपार में कई स्थलों पर (पृ. ४. ४. २२) वर्णन है. कि ज्ञानी पुरुष लोक- पणा और पुत्रपणा प्रभृति न रख कर भिक्षा मांगते हुए घूमा करते हैं। परन्तु उपनिपदों में भी यह नहीं कहा है कि, ज्ञान के पश्चात् यह एक ही मार्ग है- दूसरा नहीं है। अतः केवल उल्लिखित उपनिषद-वाक्य से ही गीता की एकवा- क्यता करना उचित नहीं है। गीता का यह कयन नहीं है, कि उपनिषदों में यर्णित यह संन्यास मार्ग मोक्षप्रद नहीं है किन्तु यद्यपि कर्मयोग और संन्यास, दोनों मार्ग एक से ही मोक्षप्रद हैं, तथापि (पर्याव मोत की प्रष्टि से दोनों का फल एक ही होने पर भी) जगत के व्यवहार का विचार करने पर गीता का यह निश्चित मत है कि ज्ञान के पश्चात् भी निष्काम बुद्धि से कर्म करते रहने का मार्ग ही अधिक प्रशस्त या श्रेष्ठ है। हमारा किया हुमा यह अर्थ गीता के बहुतेरे टीका- कारों को मान्य नहीं है। उन्हों ने कर्मयोग को गौण निश्चित किया है। परन्तु हमारी समझ में ये अर्थ सरल नहीं है। और गीतारहस्य के ग्यारहवें प्रकरण (विशेष कर पृ.३०४ -३१२) में इसके कारणों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। इस कारण यहाँ उसके दुहराने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार दोनों में से अधिक प्रशस्त मार्ग का निर्णय कर दिया गया। अब यह सिद्ध कर दिखलाते हैं कि ये दोनों मार्ग व्यवहार में यदि लोगों को भिस देख पड़ें, तो भी तावतः वे दो नहीं हैं-] (३)जो (किसी का भी) द्वेष नहीं करता और (किसी की भी) इच्छा नहीं करता, उस पुरुष को (कर्म करने पर भी) नित्यसंन्यासी समझना चाहिये। गी. २.८७
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