६५६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विंदति ॥.३८ ॥ श्रद्धापालभते ज्ञानं तत्परः संयतेंद्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमाचिरेणाधिगच्छति ॥ ३९ ॥ अन्नश्वाथधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुस्त्रं संशयात्मनः ॥ ४०॥ $S योगसंन्यस्तकर्माणं झानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निवघ्नन्ति धनंजय ॥४१॥ तस्मादज्ञानसंभूतं हत्स्यं ज्ञानासिनात्मनः । (२८) इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र सचमुच और कुछ भी नहीं है । काम पा कर उस ज्ञान को वह पुरुप पाप ही अपने में प्राप्त कर लेता है, जिसका योग मर्याद कर्मयोग सिद्ध हो गया है। 1 [३७ वें श्लोक में 'काँ' का अर्थ 'कर्म का पन्धन' है (गी. ४. १६ देखो)। अपनी बुदि से प्रारम्भ किये हुए निष्काम कर्मों के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति कर लेना, ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य या बुदिगम्य मार्ग है। परन्तु जो स्वयं इस प्रकार अपनी बुदि से ज्ञान को प्राप्त न कर सके, उसके लिये भव श्रद्धा का दूसरा मार्ग बत- लाते है-] (३९) जो श्रद्धावान् पुरुष इन्द्रियसंयम करके उसी के पीछे पड़ा रहे, उसे (भी) यह ज्ञान मिल जाता है और ज्ञान प्राप्त हो जाने से तुरन्त ही उसे परम शान्ति प्राप्त होती है। [सारांश, बुद्धि से जो ज्ञान और शान्ति प्राप्त होगी, वही श्रद्धा से भी मिलती है (देखो गी. १३. २५)।] (४०) परन्तु जिसे न स्वयं ज्ञान है और न श्रद्धा ही है, उस संशयग्रस्त मनुष्य का नाश हो जाता है । संशयग्रस्त को न यह लोक है (और) न परलोक, एवं सुख भी । [ज्ञानप्राप्ति के ये दो मार्ग बना चुके, एक बुद्धि का और दूसरा श्रद्धा का। भव ज्ञान और कर्मयोग का पृषक उपयोग दिखला कर समस्त विषय का उपसंहार करते हैं-] (१) धनञ्जय ! उस आत्मज्ञानी पुरुष को कर्म वद्ध नहीं कर सकते कि जिसने (कर्म)योग के आश्रय से कर्म अर्थात् कर्मबन्धन त्याग दिये हैं और ज्ञान से जिसके (सव) सन्देह दूर हो गये हैं। (४२) इसलिये अपने हृदय में प्रज्ञान से उत्पन्न हुए इस संशय को ज्ञानरूप तलवार काट कर, (कर्म)योग का आश्रय कर। (और) हे भारत! (युद्ध के लिये) खड़ा हो! [ईशावास्य उपनिपद में विद्या' और 'अविद्या ' का पृथक् उपयोग दिखला कर जिस प्रकार दोनों को विना छोड़े ही भाचरण करने के लिये कहा
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