६८२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥२८॥ अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपान तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥२९॥ अपरे नियताहाराःप्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥३०॥ कोई द्रव्यरूप, कोई तपरूप, कोई योगरूप, कोई स्वाध्याय अर्थात् नित्य स्वकर्मानुष्ठान- रूप, और कोई ज्ञानरूप यज्ञ किया करते हैं। (२९) प्राणायाम में तत्पर हो कर प्राण और अपान की गति को रोक करके कोई प्राणवायु का अपान में (इवन किया करते हैं) और कोई अपानवायु का प्राण में हवन किया करते हैं। [इस श्लोक का तात्पर्य यह है, कि पातंजलयोग के अनुसार प्राणायाम करना मी एक यज्ञ ही है। यह पाताल-योग रूप यज्ञ उन्तीसवें श्लोक में बतलाया गया है, अतः अहाईसवें श्लोक के "योगरूप यज्ञ" पद का अर्थ कर्मयोगरूपी यज्ञ करना चाहिये । प्राणायाम शब्द के प्राण शब्द से श्वास और उच्छवास, दोनों क्रियाएँ प्रगट होती हैं, परन्तु जब प्राण और अपान का भेद करना होता है तब, प्राण= वाहर जानेवाली अर्थात् उच्छ्वास वायु, और अपान भीतर आनेवाली ग्यास, यह अर्थ लिया जाता है (वेसू. शांभा. २. ४. १२; और छान्दोग्य शांमा.१.३. ३)। ध्यान रहे, कि प्राण और अपान के ये अर्थ प्रचलित अर्थ से भिन्न है। इस अर्थ से अपान में अर्थात् भीतर खींची हुई ग्वाल में, प्राण का-उच्छ्वास का- होम करने से पूरक नाम का प्राणायाम होता है और इसके विपरीत प्राण में पान का होम करने से रेचक प्राणायाम होता है। प्राण और अपान दोनों के ही निरोध से वही प्राणायाम कुम्भक हो जाता है। अब इनके सिवा ब्यान, उदान और समान ये तीनों बच रहे । इनमें से ज्यान प्राण और अपान के सन्धिस्थलों में रहता है जो धनुप खींचने, वजन उठाने भादि दम खींच कर या आधी श्वास छोड़ करके शक्ति के काम करते समय न्यक होता है (छां. १.३.५)। मरण-समय में निकल जानेवाली वायु को उदान कहते हैं (प्रश्न.३.७), और सारे शरीर में सब स्थानों पर एक सा अन्नरस पहुँचानेवाली वायु को समान कहते हैं (प्रम. ३.५)। इस प्रकार वेदान्तशास्त्र में इन शब्दों के सामान्य अर्थ दिये गये हैं परन्तु कुछ स्थलों पर इसकी अदा निराले अर्थ अभिप्रेत होते हैं। उदाहरणार्थ, महाभारत (वनपर्व ) के २१२ वें अध्याय में प्राण प्रादि वायु के निराले ही लक्षण हैं, उसमें प्राण का अर्थ मस्तक की वायु और भपान का अर्थ नीचे सरकनेवाली वायु है (प्रश्न. ३.५ और मैन्यु. २.६) । ऊपर के श्लोक में जो वर्णन है, उसका यह अर्थ है, कि इनमें से जिस वायु का निरोध करते हैं, उसका अन्य वायु में होम होता है। (३०-३१) और कुछ लोग माहार को नियमित कर, प्राणों में प्राणों का ही होम किया करते हैं। ये सभी लोग सनातन ब्रह्म में जा मिलते हैं कि जो यज्ञ के जानने-
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