. कर्मजिज्ञासा। ३५ इसलिये यहाँ इस बात का उलेख किया जाता है कि सत्य के विषय में, प्रामाणिक ईसाई धर्मोपदेशक भार नीतिशास्त्र के अंग्रेज़ ग्रंथकार, क्या कहते हैं। क्राईस्ट का शिष्य पॉल याइमल में कहता है " यदि मेरे असत्य मापण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है (अर्थात् ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है, तो इससे मैं पापी क्योंकर हो सकता हूँ" (रोम. ३.७)। ईसाई धर्म के इतिहासकार मिलमैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई यार इसी तरह पाचरण किया करते थे। यह यात सच है कि वर्तमान समय के नीतिशास्त्रज्ञ, किसी को धोखा देकर या भुला कर धर्मभ्रष्ट करना, न्याय्य नहीं मानेंगे परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं है कि सत्यधर्म अपवादरहित है। उदाहरणार्थ, यह देखिये कि सिज- विक नाम के जिस पंडित का नीतिशास्त्र हमारे कालेजों में पढ़ाया जाता है, उसकी क्या राय है। कर्म और कर्म के संदद का निर्णय, जिस तत्व के आधार पर, यह भ्रंथकार किया करता है उसकी " सय से अधिक लोगों का सब से अधिक सुख (बहुत लोगों का बहुत सुख) कहते हैं। इसी नियम के अनुसार उसने यह निर्णय किया है कि छोटे लड़कों को और पागलों की उत्तर देने के समय, और इसी प्रकार बीमार प्रादमियों को (यदि सच यात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के विगड़ जाने का भय हो), अपने शत्रुओं को, चोरों को और (यदि बिना योले काम न सटता हो तो) जो अन्याय से प्रश्न करें उनको उत्तर देने के समय, अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है। मिल के नीतिशास्त्र के ग्रंथ में भी इसी अपवाद का समावेश किया गया है । इन अपवादों के सति- रिक सिजविक अपने ग्रंथ में यह भी लिखता है कि " यद्यपि कहा गया है कि सब लोगों का सच योलना चाहिये तथापि हम यह नहीं कह सकते कि जिन राजनी- तिज्ञों को अपनी कार्रवाई गुप्त रखनी पड़ती है वे और के साथ, तथा व्यापारी अपने प्राहकों से हमेशा सच ही बोला करेंकिसी अन्य स्थान में वह लिखता है कि यही रियायत पादरियों और सिपाहियों को मिलती है । लेस्ली स्टीफन नाम का एक और अंग्रेज़ ग्रंथकार है। उसने नीतिशास्त्र का विवचन प्राधिभौतिक दृष्टि से किया है। वह भी अपने ग्रंथ में ऐसे ही उदाहरण दे कर अन्त में लिखता है "किसी कार्य के परिणाम की ओर ध्यान देने के बाद ही उसकी नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिये। यदि मेरा यह विश्वास हो की भूठ बोलने ही से कल्याण होगा तो मैं सत्य योलने के लिये कभी तैयार नहीं रहूंगा। मेरे इस विश्वास में यह भाव भी हो सकता
- Sidgwick's Methods of Ellycs, Book III. Chap. XI SG.
p. 355 ( 7 th Ed.). Also, soo pp. 315-317 (savio Ed. ). † Mill's Utilitarianism, Chap. II, pp. 33-34 ( 15th L.. Longmans 1907). Sidgwiok's Methods of Ethics, Book IV. Chap III S 7. p. 454 ( 7th Ed. ); and Book II. Chap 7. $ 3 p. 169,