450 गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाब। ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गंतव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ २४ ॥ देवमेवापरे यशं योगिनः पर्युपासते । बह्माग्नावपरे यक्षं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५ ॥ श्रोत्रादीनींद्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन्विषयानन्य इंद्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥ सर्वाणींद्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । (२४)मर्पण अर्थात् इवन करने की क्रिया ब्रह्म है,इवि अर्थात् अर्पण करने का द्रव्य ब्रह्म है, ब्रह्माप्ति में ब्रह्म ने हवन किया है-(इस प्रकार) जिसकी बुद्धि में (समी) कर्म ब्रह्ममय हैं, उसको ब्रह्म ही मिलता है। [शार भाष्य में 'अर्पण' शब्द का अर्थ 'अर्पण करने का साधन अर्थात आचमनी इत्यादि' है परन्तु यह जरा कठिन है। इसकी अपेक्षा, अपंण-अर्पण करने की या हवन करने की क्रिया, यह अर्थ अधिक सरल है। यह ब्रह्मार्पणपूर्वक अर्थात् निष्काम बुद्धि से यज्ञ करनेवालों का वर्णन हुमा । अव देवता के उद्देश से अर्थात् काम्य बुद्धि से किये हुए यज्ञ का स्वरूप बतलाते हैं-] (२५) कोई कोई (कर्म-)योगी (ब्रह्म बुद्धि के बदले देवता आदि के उद्देश से यज्ञ कियां करते है और कोई ब्रह्माग्नि में यज्ञ से ही यज्ञ का यजन करते हैं। [पुरुषसूक्त में विराट रूपी यज्ञ-पुरुप के, देवताओं द्वारा, यजन होने का जो वर्णन है-" यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः "(क्र. १०.६०. ६) उसी को लक्ष्य कर इस श्लोक का उत्तरार्ध कहा गया है। यज्ञं यज्ञेनोपजुवति' ये पद ऋग्वेद के 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त ' से समानार्थक ही देख पड़ते हैं । प्रगट है कि इस यज्ञ में, जो सृष्टि के आरम्भ में हुआ था, जिस विराटरूपी पशु का हवन किया गया या वह पशु, और जिस, देवता का यजन किया गया था वह देवता, ये दोनों ब्रह्मस्वरूपी होंगे। सारांश, चौवीसवें श्लोक का यह वर्णन ही तत्त्वदृष्टि से ठीक है, कि सृष्टि के सब पदार्थों में सदैव ही ब्रह्म मरा हुआ है, इस कारण इच्छा- रहित बुद्धि से सब व्यवहार करते करते ब्रह्म से ही सदा ब्रह्म का यजन होता रहता है, केवल बुद्धि वैसी होनी चाहिये । पुरुषसूक्त को लक्ष्य कर गीता में यही एक श्लोक नहीं है, प्रत्युत आगे दसवें अध्याय (१०. ४२) में भी इस सूक्त के अनुसार वर्णन है । देवता के उद्देश से किये हुए यज्ञ का वर्णन हो चुका अब अग्नि, इवि इत्यादि शब्दों के लाक्षागाक अर्थ लेकर बतलाते हैं, कि प्राणायाम आदि पाताल-योग की क्रिया अथवा तपश्चरण भी एक प्रकार का यज्ञ होता है- (२६) और कोई श्रोत्र आदि (कान, आँख आदि) इन्द्रियों का संयमरूप अग्नि में होम करते हैं और कुछ लोग इन्द्रियरूप अग्नि में (इन्द्रियों के) शब्द आदि विषयों का इवन करते हैं। (२७) और कुछ लोग इन्द्रियों तथा प्राणों के सब
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।